बेहरी में आज भी जीवित है दीपावली की पुरानी परंपरा
बेहरी (हीरालाल गोस्वामी)। बिजली की चमकदार रोशनी और चाइनीज लाइटों के इस दौर में भी बेहरी गांव के कुंभकार परिवार मिट्टी के दीयों की लौ से दीपावली को उजास से भर देते हैं। जहां शहरों में बिजली की झालरों ने पारंपरिक दीयों की जगह ले ली है, वहीं ग्रामीण अंचल में आज भी मिट्टी के दीयों से लक्ष्मी पूजा करने की परंपरा जीवित है।
रियासतकाल से चली आ रही यह परंपरा आज भी बरकरार है। यहां के कुंभकार परिवार दीपावली से कई दिन पहले मिट्टी के दीये बनाना शुरू कर देते हैं और फिर गांव के घर-घर जाकर दीये पहुंचाते हैं। इन दीयों के बदले वे अनाज लेते हैं। यह उनका पेशा भी है और परंपरा भी।
कुंभकार परिवार के संतोष, धर्मेंद्र और ओम प्रजापत बताते हैं कि उनका परिवार पीढ़ियों से यही कार्य कर रहा है। पहले जब हर घर से पर्याप्त अनाज मिल जाता था, तब वर्षभर का गुजारा इसी से हो जाता था। अब महंगाई के कारण लोग कम अनाज देते हैं—मुश्किल से तीन क्विंटल गेहूं इकट्ठा हो पाता है। फिर भी वे हर घर में 21 से 51 दीये देना नहीं छोड़ते। उनका मानना है कि किसी घर में अनाज मिले या न मिले, लेकिन हमारी मिट्टी से बने दीये से ही लक्ष्मी पूजा होती है।
दीयों के साथ वे छोटी कुल्हड़ भी बनाते हैं, जिनमें धानी (धान) रखकर लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है। बेहरी की बुजुर्ग महिलाएं नादानबाई पटेल और जसोदा दांगी बताती हैं कि जब तक कुंभकार परिवार के घर से दीये नहीं आते, तब तक लक्ष्मी पूजा अधूरी मानी जाती है। उनके घर से आया पहला दीया ही पहले पूजित होता है, फिर लक्ष्मी माता की आराधना की जाती है।
चमकदार लाइटों के बीच मिट्टी के इन दीयों की मंद-मधुर लौ सिर्फ अंधकार मिटाने का नहीं, बल्कि संस्कार, श्रम और परंपरा के उजाले का प्रतीक है।





