धर्म-अध्यात्म

संजा पर्व: पर्यावरण संरक्षण और लोक संस्कृति का संगम

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बेहरी (हीरालाल गोस्वामी)। मालवा और निमाड़ क्षेत्र की धड़कनों में रचा-बसा संजा पर्व केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि पर्यावरण को समर्पित लोक पर्व है। यह पर्व हमें गोबर, फल-फूल, नदी-तालाब, वृक्ष और पशुधन जैसे प्रकृति के अमूल्य उपहारों के संरक्षण की प्रेरणा देता है।

गांव के वरिष्ठ नाथूसिंह दांगी का कहना है कि आधुनिकता और इंटरनेट की चकाचौंध में आज की पीढ़ी अपने प्राचीन त्योहारों से दूर होती जा रही है, लेकिन गांवों में आज भी संजा पर्व उल्लास और भक्ति भाव से मनाया जाता है। शाम होते ही गलियों से संजा माता के मधुर लोकगीत गूंजते हैं और वातावरण संस्कृति की महक से भर जाता है।

लोककथाओं में संजा माता-
लोक मान्यता के अनुसार, संजा माता मालवा की विवाहित बेटी मानी जाती हैं, जो श्राद्ध पक्ष के दौरान 16 दिन के लिए अपने पीहर आती हैं। इस अवधि में सखी-सहेलियां घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न आकृतियां बनाती हैं और संध्या के समय पूजन-अर्चन कर मालवी लोकगीत गाती हैं।

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लोकगीतों की परंपरा-
छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए…, संजा बाई तू थारा घर जा…, संजा बाई घर जावांगा खाटो रोटो खावागां…। ये गीत आज भी गांव की गलियों में गूंजते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं।

संस्कृति और पर्यावरण का संगम-
गौ-रक्षा से प्रकृति की सेवा, तालाब निर्माण से जल संरक्षण, गोबर की आकृतियां बनाकर पर्यावरण से जुड़ाव।

हालांकि आधुनिकता की रफ्तार में कई जगह अब गोबर की जगह कागज पर आकृतियां बनने लगी हैं, लेकिन बेहरी और आसपास के गांवों में अब भी दीवारों पर गोबर से सुंदर आकृतियां सजाई जा रही हैं।

नाथूसिंह दांगी कहते हैं, कि अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है, तो संजा जैसे पर्व का जन-जन तक प्रचार करना होगा। इस पर्व पर हमें गर्व है।

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