Gyan Ganga: श्रीराम ने शिवलिंग की पूजा के पश्चात सबके समक्ष क्या मनोभाव प्रकट किया था?

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एक ओर विवेचना महान अर्थ समेटे हुए है। भगवान शंकर को शास्त्रों में जगतगुरु की उपाधि से सुशोभित किया गया है। साथ में यह भी कहा गया है, कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा होता है। एक गुरु ही हैं, जो जीव को भव सागर पार करा सकते हैं।

भगवान श्रीराम वानरों का उत्साह देख कर अति प्रसन्न थे। तभी श्रीराम जी के हृदय में एक पवित्र संकल्प उठा। प्रभु बोले, कि यह स्थान अति पावन है। मेरी यह इच्छा है, कि मैं यहाँ पर शिवलिंग की स्थापना करूँ। श्रीराम जी का ऐसा संकल्प सुन कर, वानरराज सुग्रीव ने सब ओर बहुत से दूत भेजे। जोकि श्रेष्ठ मुनियों को ले आये। तब श्रीराम जी ने शिवलिंग की विधिपूर्वक पूजा करके, एक मनोभाव सबके समक्ष रखा। प्रभु बोले, कि भगवान शिवजी के समान हमको दूसरा कोई प्रिय नहीं-

‘सुनि कपीस बहु दूत पठाए।

मुनिबर सकल बोलि लै आए।।

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।

सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।’

श्रीराम जी का, भगवान शंकर के प्रति ऐसे उदगार प्रकट करने के पीछे, अवश्य ही कोई विशेष कारण रहा होगा। वास्तव में श्रीराम जी अपनी इस लीला के पीछे भी, भक्ति का एक महान सूत्र प्रस्तुत करना चाह रहे हैं। प्रभु कहना चाह रहे हैं, कि लंकापति रावण को मारने की यात्र इतनी भी सहज नहीं है। बाहरी रावण का वध तो साधक के लिए, एक प्रतीकात्मक है। वास्तव में तो उसे अपने भीतर का अहंकार रूपी रावण मारना होता है। लेकिन यह इतना सहज कहाँ? साधक सब करने के पश्चात भी अहंकार को परास्त करने में असपफ़ल हो जाता है। इस समस्या का एक ही समाधान है, कि शिव की शरणागत हुआ जाये। श्रीराम यह भी कहते हैं, कि भगवान शंकर मुझे इतने प्रिय हैं, कि अगर कोई साधक भगवान शिव से द्रोह रखता है, लेकिन साथ में सोचता है, कि वह मेरा भक्त कहलाये, तो वह यह अच्छे से समझ ले, कि वह मुझे स्वपन में भी नहीं पा सकता। शंकर जी से विमुख होकर जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नर्कगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है।

सज्जनों विचार करना होगा, कि श्रीराम जी भगवान शंकर को ऐसा विलक्षण व ऊँचा स्थान क्यों प्रदान कर रहे हैं। ऐसे में तो बहुत से प्रश्न उठ खड़े होंगे। जैसे कि, जो साधक मानों माँ दुर्गा, भगवान विष्णु अथवा किसी अन्य देवता का उपासक है, और उसका भगवान शंकर के प्रति मानों इतना अनुराग नहीं, तो क्या वह श्रीराम जी की कृपा का पात्र नहीं होगा? क्या उसे अपने ईष्ट की भक्ति छोड़, भगवान शंकर को भजना ही होगा? विचारणीय तथ्य है, कि श्रीराम जी संसार को भला ऐसे धर्मसंकट में क्यों डालना चाहेंगे। सज्जनों वास्तव में श्रीराम जी के पावन वचनों के भाव व अर्थ कुछ और हैं। शास्त्रों में शिवलिंग की परिभाषा कुछ ऐसी लिखी है- ‘लययति इति लिंगम’, अर्थात जिसमें सब लय हो जाये, सब समा जाये, उसे लिंग कहा गया है। अब आप ही बतायें, कि ऐसा क्या है, जिसमें संपूर्ण ब्रह्माण्ड समा सकता है। वह तो निश्चित ही परमात्मा है। उसके सिवा ऐसी समर्थ किसी में होना संभव ही नहीं है। तो लिंग का सीधा सा अर्थ है, साक्षात ईश्वर।

एक ओर विवेचना महान अर्थ समेटे हुए है। भगवान शंकर को शास्त्रों में जगतगुरु की उपाधि से सुशोभित किया गया है। साथ में यह भी कहा गया है, कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा होता है। एक गुरु ही हैं, जो जीव को भव सागर पार करा सकते हैं। कोई साधक अपने भीतर के रावण का वध तभी कर सकता है, जब उसे पूर्ण गुरु का सान्निध्य प्राप्त हो। तो जब श्रीराम यह कह रहे हैं, कि भगवान शंकर का द्रोही होकर, कोई मेरा भक्त बनना चाहे, तो वह नर्कगामी होगा। इस वाक्य में ‘शंकर’ से तात्पर्य गुरु से कहा गया है। और ऐसा स्थान, जहाँ पर गुरु को साक्षात अथवा उनकी मूर्ति को सुशोभित किया गया हो, उस स्थान के दर्शन मात्र से भी साधक का कल्याण संभव होता है। श्रीराम जी इसीलिए उस स्थान का नाम ‘रामेश्वरम’ रखते हैं, और साथ में यह घोषणा करते हैं, कि जो कोई भी छल छोड़कर, श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकर जी मेरी भक्ति देंगे, और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही प्रयास संसार रुपी सागर से पार हो जायेगा-

‘होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।

भगति मोरि तेहि संकर देइहि।।

मम कृत सेतु जो ददसनु करिही।

सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।’

इधर नल ओर नील बड़े सलीके से पत्थरों को गढ़-गढ़ कर पानी पर फेंक रहे हैं। बड़ा ही सुंदर सेतु तैयार हो रहा है। भगवान श्रीराम अपने मंत्रिमंडल व वानर सेना सहित सेतु पर, अपने पावन श्रीचरण रखते हैं। श्रीराम के दर्शन करने जलचर जीव पानी की स्तह पर तैरने लगते हैं। वे बहुत हटाने पर भी नहीं हटते। यहाँ भी एक महान आश्चर्य घट रहा है। सेतु इतना चौड़ा नहीं था, कि पूरी सेना एक साथ उस पर चल पाती। यह देख समस्त जलचर जीवों ने अपनी-अपनी पीठ को जोड़ कर, सेतु के आकार को ओर चौड़ा कर दिया। एक भी जलचर जीव अपने स्थान से नहीं हट रहा था। सब जलचरों की इच्छा थी, कि श्रीराम जी के चरण उन पर पड़ें और उनका जीवन मुत्यु का चक्र वहीं समाप्त हो जाये।

सेतु पर बहुत अधिक भीड़ हो गई। सब वानर अभी भी एक साथ उस सेतु पर नहीं जा पा रहे थे। इस समस्या का समाधान भी श्रीराम जी ने निकाल दिया। जो कि बड़ा ही दिव्य व विस्मरणीय था। कया था वह समाधान, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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