Gyan Ganga: श्रीहनुमानजी ने प्रभु श्रीराम के कौन-से भावों को मन ही मन पढ़ लिया था?

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जैसा कि हमने पहले भी कहा था, कि वे जलचर जीव हटाने से भी नहीं हटते। कारण कि उन जीवों को केवल इतनी-सी ही होड़ नहीं थी, कि उन्होंने श्रीराम जी के दर्शन करने हैं। बल्कि उनका यह भी प्रचुर भाव था, कि प्रभु जब सेतु पर चलें, तो उनके श्रीचरण उनकी पीठ पर अवश्य पड़ें।

भगवान श्रीराम जी द्वारा सेतु निर्माण का कार्य ऐसे निपट रहा था, मानो स्वयं आकाश के समस्त देवताओं ने सेतु निर्माण का दायित्व संभाल लिया हो। जैसा कि हमने विगत अंक में भी कहा, कि भगवान श्रीराम जी जब अपने पावन श्रीचरण उस सेतु पर रखते हैं, तो समस्त जलचर जीव, प्रभु के दर्शन करने हेतु जल की सतह पर आ खड़े होते हैं। इस संपुर्ण क्रिया में एक तथ्य ऐसा था, जिस पर चिंतन आवश्यक था। वह यह कि श्रीराम जी के दर्शण करने वाले जीवों में, सभी मानो एक दूसरे के शत्रु भाव वाले थे। लेकिन श्रीराम जी के दर्शनों का ऐसा दिव्य प्रभाव था कि सभी जीव अपना परस्पर विरोध भूल कर, केवल श्रीराम जी के दर्शनों के ही पिपासु हो रखे थे। वर्तमान समय में इस दिव्य घटनाक्रम के बड़े प्रमुख मायने हैं। वह यह, कि वर्तमान काल में, संपूर्ण संसार में दृष्टि दौड़ाकर देखोगे, तो प्रत्येक जीव एक दूसरे से दुराव व अलगाव भाव से पीड़ित है। किसी का भी किसी के प्रति प्रेम व त्याग भाव नहीं है। लाखों सुंदर उपदेश व शिक्षाएं मिल कर भी, एक गुणकारी सर्वहितकारी मानव का निर्माण करने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। यह समस्या इतनी विकट है, कि यह अलगाव भाव व शत्रुता के बीज, केवल मात्र कुछ एक जीवों तक ह सीमित नहीं रह गये हैं, अपितु यह विषाक्तता जीव से जीवों से होती हुई, दो राष्ट्रों के स्तर तक पहुँच चुकी है। वास्तविकता यह है, कि इस कठिन समस्या का समाधान, हमारे द्वारा अपनाये गये किसी भी प्रयासों से संभव नहीं है। बल्कि श्रीराम जी द्वारा घटित की जा रही इस सेतु निर्माण लीला में है। अर्थात निष्कर्ष यह है, कि अगर कोई जीव अपने जीवन में भगवान के पावन दर्शनों को प्राप्त करता है, तो उसके हृदय में शत्रुता के भाव, सहज ही मिट जाते हैं-

‘प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे।

मन हरषित सब भए सुखारे।।’

जैसा कि हमने पहले भी कहा था, कि वे जलचर जीव हटाने से भी नहीं हटते। कारण कि उन जीवों को केवल इतनी-सी ही होड़ नहीं थी, कि उन्होंने श्रीराम जी के दर्शन करने हैं। बल्कि उनका यह भी प्रचुर भाव था, कि प्रभु जब सेतु पर चलें, तो उनके श्रीचरण उनकी पीठ पर अवश्य पड़ें। इस प्रयास में केई भी जलचर जीव अपने स्थान से न हटा और न हिला और परिणाम यह हुआ, कि सेतु का आकार स्वतः ही विशाल हो गया और उस पर सेना चलने लगी। कुछ क्षणों के लिए तो लगा, कि इस समस्या का समाधान कितना सुंदर व सरल निकल गया। लेकिन यह समाधान भी मानो कुछ ही क्षणों का था। कारण कि सेतु विशाल होते ही, जैसे ही वानर सेना पुल पर आने लगी, तो सेना क्योंकि करोड़ों में थी, तो वह सेतु भी अब तंग प्रतीत होने लगा। जिसे देख प्रमुख वानरों ने श्रीराम जी के सम्मुख फिर से प्रार्थना की, कि प्रभु अब क्या किया जाये। इस समस्या से कैसे निपटा जाये। तो श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी की ओर निहारा। मानों वे आँखों ही आँखों से कह रहे हों कि हे हनुमंत तुम तो पिछली बार उड़ कर लंका नगरी चले गए थे। कम से तुम तो उड़ ही सकते हो, जिससे कि सेतु पर चलने का थोड़ा-सा स्थान ही बन जाये। श्रीहनुमान जी ने भी शायद प्रभु के हृदय के भावों को पढ़ लिया था। श्रीहनुमंत लाल जी ने भी अपनी विवशता को आँखों से ही बयां कर दिया। वे बोले, कि प्रभु, क्यों आप मेरी असमर्थता के पर्दे खोल रहे हैं। किसने कहा कि पिछली बार मैं उड़ कर गया। मुझे केई उड़ना वगैरह नहीं आता। यह श्रवण कर प्रभु ने पुछा, कि अरे! आप मिथ्या भाषण कब से करने लगे हनुमान? केवल मैं ही नहीं, यह समस्त संसार जानता है, कि तुम आकाश मार्ग से लंका गये, और लंका दहन करके लौट आये। तुम इस सत्य से मुख क्यों मोड़ रहे हो।

यह श्रवण कर श्रीहनुमान बोले, कि क्षमा कीजीए प्रभु! सत्य से मैं नहीं, अपितु आप मुख मोड़ रहे हैं। क्योंकि यह सत्य समस्त संसार जानता है, कि बंदर कभी भी आकाश मार्गी नहीं होते। वे थलचर होते हैं। उन्हें उड़ना नहीं आता, हाँ कूदना-फाँदना बड़े अच्छे से आता है। लेकिन उस दिन का प्रसंग लें, तो आश्चर्य की बात यह है, कि उस दिन मैं थलचर होकर भी नभचर बना और बंदर होकर भी, बिना पंखों की ही उड़ा। तो प्रभु क्या यह संसार में किसी के साथ यूँ ही सहजता से घट सकता है? नहीं न? लेकिन सत्य है, कि मेरे साथ यह ऐसे ही घटा। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि ऐसा क्यों? क्योंकि मैं क्या, संसार में कोई भी बंदर हवा में नहीं उड़ सकता। लेकिन अगर सिर्फ आप की कृपा, किसी जीव पर हो जाये, और आप जिसकी बाँह पकड़ लें। तो वह क्या बंदर, और क्या कोई नन्हां कीट, वह निश्चित ही आसमां में ऐसे उड़ सकता है, मानो वह कोई गरुड़ हो। निश्चित ही इसमें रत्ती भर भी कोई संदेह नहीं।

प्रभु श्रीराम जी ने कहा, कि हे हनुमंत! तुम तो बड़ी चालाकी से पूरे घटनाक्रम से ही निकल गये। अपने ऊपर कोई बात ही नहीं ले रहे। लेकिन जो भी है, अब तुम यह तो बताओ, कि इस समस्या से कैसे पार पाया जाये। तो श्रीहनुमान जी बोले, कि प्रभु इसमें कौन-सी बड़ी बात है। समाधान बिल्कुल सरल व सीधा है। आप ऐसे करें, कि जिस कृपा व अनुकम्पा से आपने मुझको आकाश में उड़ाया था, वह कृपा व अनुकम्पा आप अन्य वानरों पर भी कर दें, फिर देखना आकाश में एक मैं ही नहीं, अपितु लाखों वानर उड़ेंगे।

श्रीराम जी ने यह सुना, तो वे मुस्करा पड़े। और समस्त वानरों को बस एक स्नेह भरी दृष्टि से देखा भर, और परिणाम यह हुआ, कि लाखों करोड़ों वानर आकाश में उड़ने लगे। और बाकी बचे वानर अन्य जलचर जीवों पर चढ़कर चलने लगे-

‘सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।

अपर जलचरन्हि ऊपर चढि़ चढि़ पारहि जाहिं।।’

संपूर्ण वानरों सहित श्रीराम जी सागर के उस पार जा बिराजे। अब आगे क्या घटता है, श्रीराम क्या योजनायें बनाते हैं, जानेंगे आगे चलकर—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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