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    बेहरी का ‘आचारी बाग’ अब इतिहास: देसी आम की खुशबू सिर्फ यादों में बाकी

    ByNews Desk

    Jun 2, 2025
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    – कभी 500 से अधिक देसी आमों से लहलहाता था बेहरी क्षेत्र, लकड़ी के लालच ने काट डाले जीवनदायी पेड़

    बेहरी (हीरालाल गोस्वामी)। एक समय था जब देवास जिले के बेहरी गांव का नाम अचार के आमों के लिए पूरे इलाके में जाना जाता था। यहां का ‘आचारी बाग’ अपने खट्टे-मीठे स्वाद और देसी आम की खुशबू के लिए बेहद प्रसिद्ध था, लेकिन वक्त के साथ तकनीकी बदलाव और आर्थिक लालच ने इस क्षेत्र की पहचान को लगभग खत्म कर दिया है।

    रियासतकालीन बाग, जहां देसी आमों की भरमार थी-
    बेहरी गांव में रियासतकाल के दो प्रमुख आम के बगीचे थे। छोटा बाग और बड़ा बाग। कभी 500 से अधिक देसी आमों के पेड़ों से भरे रहते थे। इन दोनों बागों के पास ही स्थित था ‘आचारी बाग’, जहां अचार के लिए विशेष प्रकार के 100 से अधिक आम के पेड़ लगे थे। आज से 30-40 साल पहले तक बेहरी के स्थानीय निवासी बाजार से आम खरीदने की ज़रूरत नहीं समझते थे। देसी आमों की इतनी अधिक पैदावार होती थी कि सीजन में हर घर इनसे भर जाता था।

    ‘पाल’ की परंपरा में जब रिश्तेदार भी बनते थे आम के स्वाद के साझीदार-
    पूर्व सरपंच रामचंद्र दांगी बताते हैं कि आम को पकाने की परंपरागत प्रक्रिया को ‘पाल’ कहा जाता है। जब आम तोड़े जाते, तो उन्हें पलाश के पत्तों, गेहूं के भूसे और चारे में दबाकर पकाया जाता था। यह प्रक्रिया कई दिनों तक चलती और जब ‘पाल’ खोला जाता, तो रिश्तेदारों और मित्रों को स्वतः ही खबर लग जाती थी। सभी को मुफ्त में पके आम खिलाए जाते थे। यह एक पारिवारिक और सामाजिक मेलजोल का सुंदर उदाहरण रहा है।

    गुठली आम और सोफिया आम बेहरी की शान-
    इस क्षेत्र में मुख्य रूप से दो प्रकार के देसी आम प्रमुखता से पाए जाते थे।

    गुठली आम: आकार में बड़े लेकिन रस की मात्रा कम। इनकी गुठली बड़ी होती है। यहां इसकी पैदावार बहुत अधिक होती थी।

    सोफिया आम: यह खुशबूदार और स्वादिष्ट किस्म है, जिसकी सुगंध सौंफ जैसी होती है। यह गिर वाला आम और बेहद लोकप्रिय है।

    इसके अलावा कुछ खट्टे किस्म के देसी आम भी होते थे, जो पकने के बाद भी मीठे नहीं होते थे। इन्हीं किस्मों की वजह से धीरे-धीरे देसी आम की प्रजातियां कटने लगीं।

    हाइब्रिड और कलमी आमों ने छीना देसी स्वाद-
    वर्तमान समय में किसान हाइब्रिड और कलमी आमों की ओर अधिक झुकाव दिखा रहे हैं। इसका मुख्य कारण है कम समय में अधिक फलदायी और बाज़ार में आकर्षक दिखने वाला उत्पादन। जल्दी पकने वाले ये आम, देसी आमों के मुकाबले अधिक लाभदायक प्रतीत होते हैं। इस बदलाव ने देसी आम की परंपरा को धीरे-धीरे मिटा दिया है।

    लकड़ी का लालच भी-
    पूर्व सरपंच सिद्धनाथ सांवनेर ने बताया कि वर्ष 1980 में बेहरी के बड़े और छोटे बागों के अधिकांश पेड़ देवास के एक लकड़ी व्यापारी को बेच दिए गए थे। दो महीने तक मजदूरों द्वारा पेड़ों को आरी और कटर से काटा गया, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में आम के पेड़ यहां मौजूद थे। उस वक्त पेड़ काटने का कारण केवल आमदनी नहीं, बल्कि लकड़ी का व्यापार बन गया था।

    आज भी कुछ लकड़ी व्यापारी गांवों में घूम-घूमकर किसानों को आम की लकड़ी की ऊंची कीमत देने का लालच देते हैं। कुछ किसान पैसों की लालच में फल देने वाले हरे-भरे वृक्षों को भी कटवा देते हैं, जिससे न केवल पर्यावरण को नुकसान होता है, बल्कि पेड़ों पर आश्रित पक्षियों और जीव-जंतुओं का भी जीवन संकट में आ जाता है।

    स्वाद और परंपरा को बचाना समय की मांग-
    बेहरी का इतिहास बताता है कि देसी आम न केवल स्वाद का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर भी है। आज ज़रूरत है कि हम इस विरासत को संजोने के लिए कदम उठाएं। स्थानीय प्रशासन और कृषि विभाग यदि मिलकर प्रयास करें, तो देसी आमों की पुनः खेती को प्रोत्साहित कर इस खोती हुई परंपरा को फिर से जीवित किया जा सकता है।