देवास। संयम नाम सदा चित लाई, जा से काल दगा मिट जाई। जीवन में हमेशा संयमित रहे। संयमित रहने से काल भी मिट जाता है, टल जाता है। इसलिए अपने चित्त को हमेशा शांत और संयमित रखें।
यह विचार सद्गुरु मंगल नाम साहेब ने प्रताप नगर प्रार्थना स्थली पर बुधवार को गुरु शिष्य संवाद, तत्व बोध चर्चा में प्रकट किए। उन्होंने कहा कि संसार के समस्त कार्य को करने के लिए अपने नाम को सीमित करना पड़ता है। संसार की झूठी वाहवाही में बहकर अपने को सुरक्षित नहीं रख पाओंगे, इसलिए अपने को पहले सुरक्षित किया जाए। सुरक्षित स्थान पर जाने के बाद ही सत्य का संदेश दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सावधान रहो किसी की वाहवाही के बहकावे में मत आओ। किसी ने वाहवाही कर दी तो हम भूल ही जाते हैं, कि हमारी मौत आगे है कि नहीं। जीवन के सुख स्वाद में मानव अपनी मौत को भी भूल गया है, जो निश्चित है।
उन्होंने कहा कि पागल गांव अनोखी बस्ती, कोई हंसता कोई रोता है। इस नगरी की रीत निराली यहां दुख महंगा, सुख सस्ता है। महंगा महल बनाया और सोया श्मशान की राख में। महंगे मकान में सो नहीं पाया और अंत में जली हुई राख में अपना मुकाम बनाता है। लाखों रुपए खर्च कर मकान बनाया पर उसमें रह नहीं पाया। उस मकान में रहने वाले उसे अंत में श्मशान में सुला आते हैं। फिर उस राख को गंगा जी, नर्मदा, शिप्रा आदि नदियों में बहा देते हैं। वापस आते समय परिजन चुपचाप निकल आते हैं, पीछे मुड़कर भी नहीं देखते कि कहीं गलती से जीवात्मा घर वापस न आ जाए, इसलिए सद्गुरु कबीर ने इस सांसारिक नगरी को पागल गांव अनोखी बस्ती कहा है। उसकी राख को भी घर लाना पसंद नहीं करते, जिसने जिंदगीभर की कमाई कर महल बनाया। मानव युगों-युगों से यही करता आया है। सद्गुरु मंगलनाम साहेब कहा कि संतों यह मुर्दों का गांव, यह मुर्दों की बस्ती है। इस जगत में जो भी जन्मा है, उसका मरना निश्चित है। सबको जाना ही है, सुरक्षित रही तो बस सिर्फ काल की फांसी जो आज भी सुरक्षित है। कभी भी, किसी को भी काल की फांसी लग सकती है। मानव शादी-विवाह करेगा, घर बनाएगा, फिर बच्चों का पालन-पोषण किया और इसी में जीवनभर उलझ कर रह जाता है। इसमें उसे परमात्मा का भान तक नहीं रहता। वह विचार तक नहीं करता जिसकी कृपा से मानव योनि, मानव जीव मिला है। जागृत जो जागने वाली श्वांस के कंधे पर जीव आत्मा यह शरीर सूरत अपनी यात्रा प्रारंभ करता है। फिर संसारभर के स्वाद व सुख, ज्ञान व धर्म ग्रंथों के अधीन होकर इनके ही सुख-स्वाद से रमेश्वर से रामेश्वर तक की यात्रा में लगा हुआ है। यात्रा करनी है तो उस अंतर्यामी की करो, जिसकी यात्रा के बाद और कोई यात्रा नहीं करना पड़ेगी। उन्होंने कहा कि हम अपने जीवन की मौत को भूल जाते हैं। जीव शरीर रूपी वन में उस देह में बैठा है, तो इसकी शोभा है। संसार को दिख रहा है। संसार स्पर्श कर रहा है, सुन रहा है। यदि जीव शरीर के जंगल से अलग हट जाए तो जीव ही रह जाता है, लेकिन इस यादाश्त को इस जीव व शरीर के संग को इस स्वाद को नहीं रख पाएंगे, इसलिए भूलकर फिर देह धारण करना पड़ेगी। यह हमारी चेतना की यात्रा जब तक पूरी ना हो तब तक हमको संयमित व सुरक्षित रहकर अपने को सुरक्षित रखना है एवं संसार को भी सुरक्षित यात्रा करवाना है।
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