Gyan Ganga: शुक की बातें सुन कर क्यों आश्चर्य में पड़ गया था रावण?

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शुक सोच रहा है, कि पहली बात तो यह, कि हे रावण! अब तेरा सुयश कब से होने लग गया? कारण कि सुयश तो उसका होता है, जो अपने जीवन में यशस्वी कार्यों को प्रार्थमिक्ता व अंगीकार करता है। जो कि रावण के जीवन में कभी हुए ही नहीं।

रावण को आजीवन अगर किसी ने कष्ट दिया, तो वह था उसका मतिभ्रम। उसे सदैव यही लगता रहा, कि संसार में उससे कुशल व श्रेष्ठ बुद्धि का देवता, अन्य कोई नहीं है। उसे यही लगता रहा, कि जगत के किसी भी विषय को लेकर, उसका अवलोकन सदैव अनुकरणीय व दिशा प्रदाता होता है। श्रीविभीषण जी के पीछे अपने दूतों को भेजना भी, उसकी इसी स्वयं सिद्ध श्रेष्ठ बुद्धि का भ्रम होना ही है। उसे लगता है, कि दूत सदैव अपने स्वामी का हित चाहता है। उसके मस्तिष्क में यही अक्स था, कि जैसे श्रीहनुमान जी ने, अपने स्वामी श्रीराम जी के मान सम्मान का ध्यान रखा, ठीक वैसे ही, मेरे दूत भी मेरे सम्मान का, ऐसे ही ध्यान रखेंगे। वे कभी मेरे विरुद्ध एक स्वर भी अपने होठों पर नहीं लायेंगे। लेकिन उसे क्या पता था, कि आदर्श अनुसरणकर्ता पाने के लिए, सर्वप्रथम स्वयं को आदर्श सम्पन्न होना आवश्यक है। स्वयं की गठड़ी झूठों का पुलिंदा हो, और आशा रखें, कि सब हमारे प्रत्येक वाक्य को ब्रह्म वाक्य-सा सम्मान दें। तो यह मान कर चलिए, कि ऐसा यथार्थ में संभव नहीं हो पाता है।

रावण ने सोचा, कि शुक अभी तुरन्त ही, श्रीराम जी के दल की एक-एक जानकारी हमारे समक्ष रख देगा। लेकिन रावण देख रहा है, कि कुछ कहने की बजाये, शुक तो मौन साधना का पथिक अधिक प्रतीत हो रहा है। कारण कि शुक रावण में यही पा रहा है, कि रावण श्रीराम जी एवं श्रीलक्षमण जी को एक तिनके के बराबर भी नहीं समझ रहा है। और कह रहा है, कि अंत में उन तपस्वियों के बारे में बता। उनसे तेरी भेंट भी हुई, अथवा वे दोनों अपने कानों से मेरा सुयश सुनकर ही वापस लौट गए?

शुक सोच रहा है, कि पहली बात तो यह, कि हे रावण! अब तेरा सुयश कब से होने लग गया? कारण कि सुयश तो उसका होता है, जो अपने जीवन में यशस्वी कार्यों को प्रार्थमिक्ता व अंगीकार करता है। जो कि रावण के जीवन में कभी हुए ही नहीं। फिर रावण तूने यह सोच भी कैसे लिया, कि श्रीराम जी अपने महाअभियान को बीच में छोड़कर वापस भी जा सकते हैं। केवल श्रीराम जी ही तो एक ऐसी सत्ता हैं, जो किसी भी सदकार्य से पीछे नहीं हटते। अब ऐसे में, मैं तुम्हें कैसे बताऊँ, कि हे रावण, तूं श्रीराम जी के संबंध में इतना सा भी जानता, जितना कि पूरे वन में एक तिनका होता है। और बात करता है बड़ी-बड़ी। ऊपर से मुझे कह रहा है, कि मैं शत्रु सेना का बल और तेज़ कयों नहीं बताता। सब वर्णन करने में मैं भौंचक्का क्यों हो रहा हूँ¬-

‘की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।

कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।’

शुक ने सोचा, कि मैं काहे का भौंचक्का होऊँगा। भौंचक्का तो अब आप को होना होगा। कारण कि जैसी स्वकल्पित सूचना की आशा, आप मुझसे कर रहे हैं, मेरी संपूर्ण सूचना उससे पूर्णतः विपरीत है। कारण कि आपने तो मानों किल्ला ही ठोंक रखा है, कि वानर सेना का सूर्य तो उदय होने से पूर्व ही डूब चुका है। तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं साहब, कि सूर्य तो स्वयं उनकी आज्ञा लेकर उदित होता है और आज्ञा लेकर ही अस्त होता है। ठीक है, आपको यह जानने का इतना ही उतावलापन है न, कि आपके भाई के साथ, श्रीराम जी ने क्या व्यवहार किया, तो सुनिए उनके साथ, श्रीराम जी ने क्या किया-

‘नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।

मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।

जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।’

शुक ने कहा, कि जिस भाई को आपने लातें मार-मार कर, अपने घर से निकाल दिया था, उन्हीं श्रीविभीषण जी को, श्रीराम जी ने सर्वप्रथम राज्य तिलक किया। और वह राज्य तिलक कहीं अयोध्या का नहीं, अपितु आपकी लंका नगरी का किया। रावण ने यह सुना, तो एक बार तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, कि भला मेरे लंकेश रहते, वह वनवासी ऐसे कैसे विभीषण को लंका का राज तिलक कर सकता है। लेकिन तभी उसे हँसी-सी आ गई। उसने सोचा, कि अरे वाह! मेरा भाई तो पागल था ही, साथ में वह वनवासी भी पागल है क्या? चलो अच्छा है, बढ़िया पागलों की टोली इकट्ठा हो रखी है।

शुक अपने संदेश में कहना तो यही चाहता था, कि देखो लंकापति रावण! एक तो आप हैं, जो अपने भाई को अपने पास, इतनी बड़ी लंका में भी रख न पाये। और एक श्रीराम जी हैं, जो कि आपके भाई को प्रथम भेंट में ही राज तिलक से साज देते हैं। श्रीराम जी का हृदय है ही इतना विशाल व उदार, कि वे केवल अपने भाई श्रीभरत जी को ही राज सिंघासन पर नहीं बिठाना जानते, अपितु अपने शत्रु के भाई को भी राज सिंहासन से सुशोभित करना जानते हैं। शुक कहना चाहता है, कि रावण स्वयं और श्रीराम जी में यह अंतर समझे, कि अपनों का आदर कैसे किया जाता है। अपने छोड़ो, श्रीराम जी के दरबार में तो सात बेगानों के साथ भी, सगों-सा व्यवहार किया जाता है। अब हमारा उदाहरण ही ले लीजिए। आपके भाई तो चलो फिर भी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उनको सम्मान किया तो कुछ पल्ले भी पड़ता है। लेकिन हमारा क्या है। हम तो एक क्षुद्र से राक्षस ही हैं न? लेकिन श्रीराम जी के दरबार में तो हमारे साथ भी दया का ही व्यवहार हुआ। हालांकि हमारी सत्यता प्रकट होने पर, अन्य वानरों ने तो हमें भले ही अनेकों कष्ट देने चाहे, लेकिन जैसे ही हमने सबको श्रीराम जी की सौगन्ध दी, उसके पश्चात किसी ने हमें कुछ नहीं कहा। कहने का भाव, कि पूरे सेना दल में श्रीराम जी के एक संकेत पर, सब श्रीराम जी का सम्मान बचाने के लिए, अपने प्राणों तक को न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं।

शुक बस इसी प्रयास में था, कि रावण किसी न किसी प्रकार से श्रीराम जी की महिमा को समझ जाये। शुक आगे भी रावण को अनेकों तर्कों से आगे क्या-क्या समझाता है, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

-सुखी भारती

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