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भगवान ने ब्रूतागमनकारणम मुस्कुराकर आने का कारण पूछा और साथ ही स्त्रियोचित धर्म का बखान भी किया। भगवान कहते हैं– रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए। तुम सब व्रज में लौट जाओ। तुम्हारे माता-पिता, पति, पुत्र खोजते होंगे।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है। आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों ! पूर्व प्रसंग में हम सबने गोवर्धन लीला का श्रवण किया। भगवान ने देवराज इन्द्र की पूजा का विरोध करते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया और गोवर्धन की पूजा करवाई। इंद्र के क्रोध से व्रजवासियों की रक्षा की और सभी ग्वाल-बालों को अभय प्रदान किया। आइए ! अब रासलीला के प्रसंग में चलते हैं—–
रास पंचाध्यायी मूलत: भागवत पुराण के दशम स्कंध के उनतीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्यायों का नाम है। भागवत पुराण के इन पाँच अध्यायों को इस पुराण का प्राण माना जाता है क्योंकि इन अध्यायों में श्रीकृष्ण की दिव्य लीला के माध्यम से प्रेम और समर्पण की प्रतिष्ठा की गई है।
शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! भगवान कृष्ण ने चीरहरण के समय गोपियों से जिस शरद ऋतु की बात की थी वह समय आ गया। चारो तरफ बेला, चमेली के सुगंधित फूल महकने लगे। सच पूछिए, तो रासलीला की पृष्ठ भूमि है चीरहरण का प्रसंग।
भगवानपि ता रात्रि: शरदोत्फुल्ल मल्लिका ।
वीक्ष्य रंतुम मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ।।
भगवान ने भी अपनी योगमाया से गोपियों को निमित्त बनाकर रसमयी रास क्रीड़ा करने का संकल्प किया। गोपियाँ प्रतिबिंब के रूप मे विद्यमान थीं। जैसे रावण ने भी सीता के प्रतिबिंब रूप का हरण किया था न कि असली सीता का।
निशम्य गीतं तदनंगवर्धनम्
व्रजस्त्रय: कृष्ण गृहीत मानसा: ।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा:
स यत्र कान्तो जव लोल कुंडला:।।
पूर्णिमा की रात अखंड चंद्र मण्डल अमृत रूपी चाँदनी उड़ेल रहा था। भगवान ने गोपियों को रिझाने के लिए वंशी की मधुर तान छेड़ी। बांसुरी की मीठी आवाज सुनते ही गोपियाँ सब कुछ छोड़कर कृष्ण के पास चल पड़ीं। माता, पिता, पति, पुत्र घर के सब लोगो ने उन्हे बहुत रोका, उनकी प्रेम-यात्रा में बहुत विघ्न डाला किन्तु वे नहीं रुकीं। कैसे रुकें विश्वमोहन ने मोहित कर लिया था।
भगवान की वंशी की मधुर आवाज सुनकर कृष्ण भक्त सूरदास जी भी अपने को नहीं रोक सके और गाने लगे——
हरि जी मुरली मधुर बजाई —
मोहे सुर नर नाग निरंतर, व्रजवनिता अकुलाई
यमुना नीर प्रवाह चकित भयो,पवन रह्यो मुरझाई
हरि जी —————————
खग, मृग, मीन अधीन भए सब अपनी गति बिसराई
द्रुम बेली अनुराग पुलक तनु शशि थकि निशि न घटाई
हरि जी —————————
सूर श्याम वृन्दावन विहरत चलहू सखि सुधि पाई
हरि जी —————————-
कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौह्रदमेव च
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि तो।।
शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! हमारा संबंध भगवान से होना चाहिए, चाहे वो काम का हो, क्रोध का हो, या भय का हो। बस हम अपनी मनोवृत्तियाँ भगवान से जोड़ दें। श्री कृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम सुंदरियाँ मेरे पास आ गईं हैं तो उन्होने उनका स्वागत किया। कुशल मंगल पूछा।
स्वागतम वो महाभागा; प्रियम किम करवानि व:
व्रजस्या नामयम कच्चीत ब्रूतागमनकारणम ॥
भगवान ने ब्रूतागमनकारणम मुस्कुराकर आने का कारण पूछा और साथ ही स्त्रियोचित धर्म का बखान भी किया। भगवान कहते हैं– रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए। तुम सब व्रज में लौट जाओ। तुम्हारे माता-पिता, पति, पुत्र खोजते होंगे। तुम लोग कुलीन स्त्री हो। जाओ, पति की सेवा करो। पति और सास ससुर की सेवा ही स्त्रियों का परम धर्म है। पति भले ही दुष्ट स्वभाव, भाग्यहीन, वृद्ध, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो।
रामायण के अरण्यकांड में अनसूयाजी ने सीताजी को स्त्री धर्म का बड़ा ही सुंदर उपदेश दिया है।
अमित दान भर्ता बैदेही अधम सो नारि जो सेव न तेही
वृद्ध रोगबस जड़ धन हीना अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥
ऐसेहू पति कर किए अपमाना नारि पाव जमपुर दुख नाना ।
पति चाहे जैसा भी हो शास्त्रो में उसे परमेश्वर की दर्जा दी गई है।
भर्तु: शुश्रूणम स्त्रीणाम परो धर्मो ह्य मायया।
तद्बंधुनाम च कल्याण्य प्रजानाम चानुपोषणम ॥
अभिज्ञान शाकुंतलम नाटक में महाकवि कालिदास जी ऋषि कण्व से शकुंतला के विदाई के समय कहलवाते हैं।
शुश्रूषस्वगुरून्कुरुप्रियसखीवृत्तिंसपत्नीजने
भर्तुर्विप्रकृतापिरोषणतयामास्मप्रतीपंगमः।
भूयिष्ठंभवदक्षिणापरिजनेभाग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयः वामाः कुलस्याधयः॥
महर्षि कण्व अपनी पालिता पुत्राी को शिक्षा दे रहे हैं, कि तुम ससुराल के सभी सदस्यों के प्रति इतना अच्छा व्यवहार करना जिससे कि तुम अच्छी गृहिणी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सको। इसके लिए तुम अपने से बड़ों की सेवा करना, राजा की जो अन्य रानियाँ हैं उनके साथ सखियों जैसा व्यवहार करना। ईर्ष्या द्वेष मत करना। यदि कभी तुम किसी बात से अपने को अपमानित हुआ अनुभव करो तो क्रोधित मत होना और क्रोध के कारण अपने पति से नाराज मत होना। ऐसी हालत में बड़े धैर्य से काम करना और क्रोध् को शान्त रखना। महल में जितने भी सेवक हैं उनके प्रति उदार भाव रखना। पट्ट्महिषी होने का घमंड मत करना। घमंडी व्यक्ति का व्यवहार दूसरों के प्रति अच्छा नहीं रहता और वह अपनी मर्यादा को भी भूल जाता है। इस प्रकार से जो युवतियाँ व्यवहार करती हैं वे पति के घर में सदगृहिणी के रूप में जानी जाती हैं परन्तु जो इसके विपरीत आचरण करती हैं वे अपने कुल के लिए अभिशाप बन जाती हैं। भगवान ने उन गोपियों को स्त्री धर्म का बड़ा ही सुंदर उपदेश दिया है। भागवत महापुराण का यह संदेश और महर्षि कण्व का यह उपदेश केवल गोपियों और शकुंतला के लिए ही नहीं बल्कि समस्त स्त्री जाति के लिए है। आज के बदलते हुए इस परिवेश में हमारी हर भारतीय नारी को इससे शिक्षा लेनी चाहिए।
शेष अगले प्रसंग में —-
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी
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