धर्म-अध्यात्म

Gyan Ganga: सागर को बात नहीं मानते देख प्रभु श्रीराम ने क्या किया था?

[ad_1]

सागर ने स्वयं को तनिक गहरा-सा क्या पाया, वह तो अपने हृदय की गहराई ही भूल गया। उसकी विशालता इसमें थोड़ी न है, कि उसकी सीमायों का कोई ओर-छोर न हो। अपितु उसकी विशालता इसमें है, कि वह हृदय की उदारता से विशाल हो।

रावण की भी अजीब वृति थी। उसे जब भी किसी ने समझाने का प्रयास किया, उसने उसका प्रतिऊत्तर लात मार कर ही दिया। और देखिए, उसने शुक को भी लात मार दी। इसके दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं, इसका उसे तनिक भी भान नहीं था। शुक ने लात खाई, तो वह तो रावण के समक्ष एक क्षण भी न रुका। और उसने उसी समय लंका नगरी का त्याग कर दिया। उसके मन में रावण के प्रति इतना रोष था, कि उसने जाते समय, रावण को प्रणाम तक न किया। भगवान शंकर माता पार्वती जी को कथा सुनाते हुए, शुक के संबंध में यह रहस्य उजागर करते हैं, कि शुक वास्तव में एक मुनि था। लेकिन अगस्त्य मुनि के श्राप से वह राक्षस हो गया था। लेकिन श्रीराम जी के आशीर्वाद से, शुक पुनः मुनि रूप को प्राप्त हुआ, एवं अपने आश्रम लौट गया।

इधर श्रीराम जी सागर को विनय पूर्वक प्रार्थनायें कर रहे थे, कि वह उन्हें व समस्त वानर सेना को, लंका तक पहुँचने के लिए मार्ग दे दे। लेकिन श्रीराम जी के ऐसे महान दिव्य प्रयास करने पर भी सागर ने रास्ता नहीं दिया, और पूरे तीन दिन बीत गए। अब श्रीराम जी को क्रोध आ गया। उनका स्वर ऊँचा व गंभीर हो उठा। मुखमंडल पर लालिमा छा गई। श्रीराम जी का ऐसा रूप देख कर, बादलों की भयंकर गर्जनायें होने लगीं। प्रभु बोले, कि हमें सागर के समक्ष विनय करते-करते तीन बीत गए हैं। लेकिन वह तो मानो बहरा ही हो गया है। उसे लगता है, कि हम व्यर्थ ही प्रयासों में लगे हुए हैं। हमारे विनय का मानो कोई मूल्य ही नहीं। महापुरुषों ने सही ही कहा है, कि भय के बिना भी प्रीत नहीं होती-

‘बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।’

श्रीराम जी ने क्रोधित स्वर में श्रीलक्षमण जी से कहा, कि हमारा धनुष प्रस्तुत किया जाये। हम अभी एक ही बाण से संपूर्ण सागर को सुखा डालते हैं। कारण कि सागर के समक्ष हमारे विनय करने का, ठीक वैसे ही लाभ नहीं, जैसे मूर्ख से विनय, कुटिल से साथ प्रीति एवं कंजूस के साथ सुंदर नीति करने का होता है।

सागर ने स्वयं को तनिक गहरा-सा क्या पाया, वह तो अपने हृदय की गहराई ही भूल गया। उसकी विशालता इसमें थोड़ी न है, कि उसकी सीमायों का कोई ओर-छोर न हो। अपितु उसकी विशालता इसमें है, कि वह हृदय की उदारता से विशाल हो। लेकिन मूर्ख जड़ को अहंकारवश सद्गुणों का विस्मरण हो गया है। उसे समझाना ठीक वैसे है, जैसे ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शांति की बात और कामी से भगवान की कथा सुनाई जाये। इन सबका वैसा ही परिणाम निकलता है, जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है।

ऐसा कहकर श्रीराम जी ने अपने धनुष पर बाण बढ़ाया, अग्नि बाण का संधान कर दिया। परिणाम यह हुआ, कि सागर में भीतर तक ताप बढ़ने लगा। समस्त जलचर जीव व्याकुल होने लगे। अग्नि बाण का ताप इतना था, कि आने वाले कुछ ही क्षणों में सागर को सूखने से कोई नहीं बचा सकता था। सागर को भी अपने अस्तित्व की रक्षा की आन पड़ी। श्रीराम जी के श्रीचरण पकड़ने के सिवा अब उसके पास कोई चारा नहीं था। और तभी बिना विलंब किए, सागर ब्राह्मण का रूप धारण कर श्रीराम जी के समक्ष प्रस्तुत होता है। चेहरे पर भय, लेकिन हाथों में मणियों से भरे थाल लेकर, वह श्रीराम जी से विनती करता है, कि वे कृपया शांत हो जायें। उसे अज्ञानतावश बहुत बड़ी भूल हो गई है। श्रीराम जी का कथन तो अटल है। निश्चित ही श्रीराम प्रभु हैं। वे तो मुझे सुखा कर सागर पार कर ही जायेंगे। लेकिन इसमें मेरे हाथ आया सेवा का अवसर निकल जायेगा।

सागर की यह दशा का वर्णन करते हुए, काकभुशुण्डिजी कहते हैं, कि हे गरुड़ जी सुनिए! कहीं-कहीं पर जोड़ना भी लाभदायक नहीं होता। जैसे केले को भले ही कितना ही सींच के क्यों न पाला गया हो। लेकिन वह फलता तभी है, जब उसे पेड़ से काटा जाता है। ठीक वैसे ही नीच विनय से रास्ते पर नहीं आता, उसे मार्ग पर लाने के लिए डाँटना आवश्यक ही होता है-

‘काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन केउ सींच।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।’

सागर को भी जब तक लगा, कि श्रीराम जी ने भला उसका क्या बिगाड़ लेना है है, तब तक वह जड़ बना रहा। लेकिन जब देखा, कि अरे यह तो मेरे देखते-देखते, मेरा समस्त संसार उजड़ जायेगा, तो सागर श्रीराम जी के श्रीचरणों में लेट गया। अनेकों प्रकार से क्षमा याजनायें कीं। और जब श्रीराम जी ने देखा, कि सागर सच में हृदय से हार गया है। तो प्रभु ने कहा, कि हे सागर देवता! निश्चित ही हम भी आपकी रुचि अनुसार ही मार्ग चाह रहे थे। यह तो आप ने ही विलंब कर डाला। लेकिन कोई बात नहीं, अब आप ही वह उपाय बताओ, जिससे कि हम और पूरी वानर सेना उस पार लंका पहुँच पाये। तो सागर श्रीराम जी को एक बहुत ही सुंदर उपाय बताता हैं। क्या था वह सुंदर उपाय, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

-सुखी भारती

[ad_2]

Source link

Advertisement

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button