धर्म-अध्यात्म

रियासतकालीन परंपरा है शक्ति के प्रतीक त्रिशूल पूजने की

– 500 वर्ष से अधिक पुरानी परंपरा को निभा रहे ग्रामीण
बेहरी (हीरालाल गोस्वामी)। बेहरी क्षेत्र और आसपास के शहर में गांव माता पूजन पर अधिकतर परिवार सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी पर पूजन करते हैं। मूल निवासी अष्टमी व नवमी पर शक्ति के प्रतीक रूप में त्रिशूल का पूजन करते हैं। यह परंपरा 500 वर्ष से अधिक पुरानी है। अष्टमी व नवमी पर बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने शक्ति के प्रतीक त्रिशूल का पूजन किया। इस त्रिशूल पूजन की परंपरा रियासतकालीन है और ऐसी मान्यता है कि त्रिशूल के पूजने से शक्ति का संचार होता है।
इतिहासकारों के अनुसार 18वीं शताब्दी के पूर्व बेहरी सहित आसपास के चार अन्य जागिरी गांव में गरासिया समुदाय के लोग शासन करते थे। इसमें बेहरी, बागली, कोटड़ा किला, लालगढ़ शामिल है। आज भी प्राचीन गढ़ी या गढ़ ऐतिहासिक स्थानों पर त्रिशूल के प्रतीक माताजी के मंदिर में बने हुए हैं। कालांतर में गरासिया समुदाय गारी समुदाय में विस्तारित हो गया। बागली, मऊखेड़ा आदि क्षेत्रों में राजपूत समाज की संस्कृति आ गई। गरासिया समुदाय कुनबे कबीले में निवास करते थे। उनकी शक्ति का प्रतीक चिन्ह त्रिशूल ही था, जिसका नवरात्रि पर पूजन आज भी कई परिवार में करते हैं। नवमी पर कोटरा किला, साकल बावड़ी एवं बेहरी की पुरानी गढ़ी में त्रिशूल पूजन किया गया। यहां सिंदूर से दीवार पर त्रिशूल का चित्र बनाया है, जिसे शक्ति का प्रतीक माना जाता है। रेणुका माता मंदिर में त्रिशूल ही माता का स्वरूप है।

त्रिशूल उपासक परिवार के कई किस्से-
त्रिशूल शक्ति का प्रतीक है और इसकी पूजा जो परिवार करते हैं, वे बताते हैं कि उनकी माता को कुल के लोगों के अलावा दूसरा कोई नहीं देखता। प्रसाद के रूप में जो भी भोजन बनाया जाता है, उसे खाने के बाद बचने की स्थिति में जमीन में भंडार कर दिया जाता है। यह त्रिशूल सिंदूर से दीवारों पर बनाया गया है। बेहरी में लगभग नौ फीट ऊंचा और चार फीट चौड़ा त्रिशूल बना हुआ है। गांव की वरिष्ठ पटलन नंदाबाई बताती हैं कि वह स्वयं इस त्रिशूल आकृति को 102 वर्षों से देख रही हैं। इसके पूर्व में भी कई वर्षों से यह आकृति बनी हुई है। लगभग 2 किलो सिंदूर का उपयोग और 1 किलो घी का उपयोग इस त्रिशूल आकृति को बनाने में होता है। घर के शुद्ध घी से त्रिशूल की आकृति बनाई जाती है और इसके सामने माता का चौक बनाकर पूजा अर्चना की जाती है। इस दौरान गोत्र के और कुल के सभी परिवार के लोग एकत्रित होकर पूजा करते हैं। यह परंपरा बागली क्षेत्र, बेहरी क्षेत्र एवं मऊखेड़ा क्षेत्र में बड़े स्तर पर प्रचलित है। क्षेत्र का सबसे बड़ा त्रिशूल बेहरी में ही है।
सबसे बड़ा त्रिशूल बेहरी में-
लोगों का कहना है कि सिंदूर से निर्मित सबसे बड़ा त्रिशूल सिर्फ बेहरी में ही बनाया जाता है। बुजुर्ग बताते हैं कि पहले यहां पर बड़ी मात्रा में तलवार, भाला, त्रिशूल आदि अस्त्र रखे जाते थे, जिनकी पूजा दशहरे पर की जाती थी। उस वक्त धारदार हथियार रखना परंपरा में शामिल था। आज भी कई घरों में 200 से 300 वर्ष पुरानी तलवारें रखी हुई हैं।

Advertisement

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button