धर्म-अध्यात्म

Gyan Ganga: धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने लिया था जन्म

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भगवान श्री कृष्ण सुदर्शन और शंखचूड़ का उद्धार करते हैं। अब भयभीत कंस अक्रूर जी को व्रज में भेजता है। अब अक्रूर जी रास्ते में सोचते हैं कि कृष्ण के दर्शन होंगे कि नहीं। फिर कहते हैं, नहीं-नहीं भगवान तो कल्पतरु हैं वे अपने भक्तों का मनोरथ अवश्य पूर्ण करते हैं।

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥

श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।

भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।

मित्रों !

पूर्व प्रसंग में हम सबने भगवान के दिव्य रास लीला की कथा सुनी।

आइए ! अब आगे के प्रसंग में चलते हैं—-

परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा, हे प्रभु !

संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च । 

अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वर: ॥ 

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।

प्रतीपमाचरद ब्रह्मन परदारा भिमर्शनम ॥ 

भगवान श्री कृष्ण सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। उनके अवतार लेने का मुख्य उद्देश्य है धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश। फिर उन्होंने धर्म के खिलाफ पर स्त्रियों का स्पर्श क्यों किया ?

क्या यह निंदनीय आचरण नहीं है ?

शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित !

धर्म व्यति क्रमो दृष्ट ईश्वराणाम च साहसम। 

तेजीयसां न दोषाय वह्ने: सर्व भूजो यथा ॥ 

सूर्य, अग्नि और ईश्वर ये सर्व समर्थवान हैं। कभी-कभी धर्म का उल्लंघन करने से इनके व्यक्तित्व में कोई दोष नहीं आता। अग्नि सब कुछ खा जाता है किन्तु वह उस पदार्थ के दोष से लिप्त नहीं होता।

गोस्वामीजी कहते हैं—

समरथ को नहीं दोस गोंसाई रवि पावक सुरसरि की नाई ॥  

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं- हे परीक्षित ! रासलीला कामलीला नहीं है, यह प्रेम की पराकाष्ठा की एक अलौकिक लीला है। वास्तव में यह काम पर विजय की लीला है। कामदेव के मान मर्दन की लीला है। भक्त और भगवान की अनोखी लीला है। गोपी और गोविंद की परम पवित्र लीला है। निर्जन वन और पर्वत-कन्दराओं में समाधि लगाकर काम को जीतना बड़ी बात नहीं है, किन्तु गोपांगनाओं के बीच भगवान की तरह निर्लिप्त और निष्काम बने रहना साधारण जीव के लिए अत्यंत कठिन है। गोविंद और गोपियों के दिव्य भाव को सामान्य स्त्री-पुरुष के भाव जैसा मान लेना गोपियों के प्रति, भगवान के प्रति और सत्य के प्रति सरासर अन्याय एवं अपराध है।

अनुग्रहाय भूतानां मानुषम देहमास्थित: । 

भजते तादृशी क्रीडा या: श्रुत्वा तत्परो भवेत ॥ 

भगवान जीवों पर कृपा करने के लिए ही अपने को मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं जिन्हें सुनकर जीव ईश्वर का हो जाए, भक्त भगवान का हो जाए अस्तु–

इस तरह दैवीय लीला करते हुए भगवान श्री कृष्ण सुदर्शन और शंखचूड़ का उद्धार करते हैं। अब भयभीत कंस अक्रूर जी को व्रज में भेजता है। अब अक्रूर जी रास्ते में सोचते हैं कि कृष्ण के दर्शन होंगे कि नहीं। फिर कहते हैं, नहीं-नहीं भगवान तो कल्पतरु हैं वे अपने भक्तों का मनोरथ अवश्य पूर्ण करते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि मुझे उनके दर्शन जरूर मिलेंगे। ओहो… देखो-देखो शुभ शकुन हो गया एक मृगों का झुंड हमारी दाहिनी ओर से दौड़ता हुआ चला गया। यह शुभ संदेश है कि दर्शन अवश्य होंगे। अक्रूर जी के मन में उत्सुकता है प्रभु का विग्रह कैसा होगा? मैंने तो केवल सुना है देखा नहीं। कल्पना में खो गए अक्रूर जी। मछली की तरह बड़ी-बड़ी आँखें होंगी, विशाल ललाट होगा, टमाटर जैसे लाल-लाल गाल होंगे, तोते के चोच के समान सुंदर नासिका होगी, बिम्ब फल की तरह गुलाबी होठ होंगे।

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकम् स्मितावलोकारूण कंजलोचनम्

मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं प्रदिक्षणं मे प्रचरन्ति वै मृगा:।।

भगवान के आनंद स्वरूप में अक्रूर जी की समाधि लग जाती है। अब रथ के घोड़े तो तब चलेंगे जब उन्हें कोई चलाएगा। घोड़े भी शांत खड़े हो जाते हैं। अक्रूर जी समाधि लगाए रथ में बैठे हैं कई घंटे बीत जाते हैं, जब होश आता है तब फिर घोड़े हाँकते हैं। चार कदम चले कि फिर समाधि लग जाती है। परिणाम स्वरूप शाम को पहुँचते हैं।

इति संचितयन कृष्णम श्वफलकतनयोध्वनि 

रथेन गोकुलम प्राप्त; सूर्यश्चास्त गिरिम नृप।  

शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! सूर्यास्त हो गया वृन्दावन में पहुँचते पहुँचते। जबकि मथुरा से वृन्दावन में पैदल भी जाएँ तो दो घंटे से अधिक न लगे। रथ में इतना समय लग गया। शाम का वक्त था गौ चारण करके प्रभु वापस आए थे। गायों के पीछे पीछे चलते हैं इसलिए पृथ्वी पर उनके सुंदर-सुंदर चरण चिह्न अंकित हो गए हैं। व्रज भूमि से उनको इतना अनुराग है कि गायों के खुर से धरती खुद जाती है तो उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए भगवान अपने सुकोमल चरणों से मरहम पट्टी करते हुए चलते हैं। भगवान के सुखद चरणों के स्पर्श से धरती पुलकित हो जाती है। रथ में चलते अक्रूर जी ने भगवान के वज्र, अंकुश, ध्वजा से चिन्हित चरणों को देखा तो पहचान गए। रथ से कूद पड़े और व्रज-रज को अपने पूरे अंगों में लपेट लिया। आ-हा-हा- ! ये मेरे प्यारे के चरण रज हैं। देखिए अपने प्रेमी की हर चीज प्यारी लगती है। अक्रूर जी ने पहुँचकर देखा कि दोनों भैया गो दोहन की तैयारी कर रहे हैं। दोनों के हाथ में दोहनी है। कन्हैया के श्याम वर्ण पर पीताम्बर लहरा रहा है और बलराम जी के गौर वर्ण पर नीलांबर सुशोभित हो रहा है।

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गो दोहनं गतौ

पीतं नीलांबरधरौ शरदंबु रूहेक्षणौ।।

ऐसा लग रहा है कि शरद्पूर्णिमा में दो चाँद एक साथ प्रकट हो गए हैं। दौड़ पड़े अक्रूर जी महाराज और प्रभु के चरण कमलों में लिपट गए। ऐसा प्रेम उमड़ा कि छुड़ाने पर भी भगवान छुड़ा नहीं पाए। बार-बार उठाते हैं पर उठते नहीं। अपने प्रेम के आंसुओं से भगवान का पाद-प्रक्षालन कर दिया। प्रभु ने जैसे-तैसे अक्रूर जी को उठाकर हृदय से लगाया। अक्रूर जी रिश्ते में चाचा जी लगते थे। ऐसा अद्भुत प्रेम देखकर दाऊ जी भी गद-गद हो गए। चाचा जी आ गए, चाचाजी आ गए। दोनों भैया प्रमुदित होकर भीतर ले आए। नन्द बाबा ने भी दौड़कर अक्रूर जी से भेंट की। भगवान ने दिव्य आसन पर बैठाकर विधिवत पाद-प्रक्षालन किया और गो माता का दर्शन करवाया। हमारे देश की प्राचीन परंपरा है सबसे पहले अतिथि को गो माता का दर्शन करवाया जाता था। गो माता के समान कोई पवित्र नहीं है। गाय हमारी समृद्धि की प्रतीक हैं। अतिथि को पता चल जाता था कि इनके घर मे दूध, दही, घी की कमी नहीं है। खाने-पीने में कोई संकोच नहीं करना है। ये सब अतिथि-पूजन की परंपरा भगवान ने निर्वाह किया। सुंदर-सुंदर भोजन कराने के बाद अब रात्रि में विश्राम करने लगे और चाचाजी के चरण दबाने लगे। अक्रूर जी के आनंद का पारावार नहीं रहा। एक खूबसूरत संदेश भक्त जितना सोच नहीं पाता उससे अधिक भगवान देते हैं।

शेष अगले प्रसंग में —-

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

– आरएन तिवारी

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