यम स्मृति में लिखा है, कि पिता, दादा, परदादा तीनों श्राद्ध की ऐसी आशा रखते हैं, जैसे पेड़ों पर रहते हुए पक्षी पेड़ों में लगने वाले फलों की। जिस योनि में पितृ हो उसी रूप में अन्न उन्हें मिल जाता है। कौवे तथा पीपल के पेड़ को पितरों का प्रतीक माना गया है।
मनुस्मृति में कहा गया है- मनुष्य के एक मास के बराबर पितरों का एक अहोरात्र (दिन-रात) होता है। मास में दो पक्ष होते हैं। मनुष्य का कृष्णपक्ष पितरों के कर्म का दिन व शुक्लपक्ष पितरों के सोने के लिए होता है। श्रद्धा से ही श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति होती है। यानी अपने मृत पूर्वजों के लिए श्रद्धा से किया गया कार्य ही श्राद्ध कहलाता है। बदलते हुए परिवेश में आज कल लोग श्राद्ध का मतलब केवल ब्राह्मण भोजन मानने लगे हैं। जबकि श्राद्धकर्म में पिंडदान और तर्पण के साथ-साथ यह अधिक महत्वपूर्ण है कि, आप पूर्वजों के प्रति मन में कितनी श्रद्धा रखते हैं।
हिंदू परंपराओं व भारतीय संस्कृति में अनेक पर्व, त्यौहार, उत्सवादी को हर दिन मनाया जाता है। इन पर्वों का महत्व अपने आप में पर्यावरण की दृष्टि तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण होता है। विश्व में हिंदू धर्म ही जो पुनर्जीवन को मानता है तथा मृत्यु के पश्चात भी अपने परिवार की सात पीढ़ियों के पूर्वजों का स्मरण कर उन्हें याद करता है। उनके निमित्त अपने कर्मों के उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी से निभाता है।इसके लिए वर्षभर शुभ कार्य में तो अपने पूर्वजों को याद करते ही है, पर इसे 16 दिनों तक विशेष पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन16 दिनों को श्राद्ध पक्ष के नाम से हम जानते हैं।
संसार में हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता और परंपरा ही ऐसी है, जिसमें परिवार के व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात भी उनके निर्मित परिवार में शांति के लिए कर्मकांड किया जाता है। भारतीय परंपरा का यह पर्व युगों-युगों से चला आ रहा है। इसकी पुष्टि द्वापर युग में कर्ण की कहानी और त्रेतायुग रामायण काल से भी की जा सकती है। जब भगवान श्रीराम ने अपने पिता स्व. राजा श्री दशरथजी के निमित्त गयाजी में तर्पण कर पिंडदान का कार्य किया। संसार में किसी भी अन्य धर्म में मृत्यु के बाद किसी कर्म के लिए कोई भी विधान हो, परंतु वह भी अपनी सात पीढ़ियों के लिए सनातनी हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध पक्ष में अपने पूर्वजों की पूजा के लिए 16 दिनों में सातों पीढ़ियों के पूर्वजों हेतु तर्पण व कर्म कर सकता है। इसी के साथ पुनर्जन्म की मान्यता भी जुड़ी हुई है। यह 16 दिनों का पर्व हिन्दू पंचाग के आधार पर हर वर्ष भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से आरंभ होकर आश्विन मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक (अनंत चतुर्दशी के अगले दिन से शारदीय नवरात्रि घटस्थापना से एक दिन पूर्व तक) मनाया जाता है।
मान्यता है कि, यमराज की अनुमति से हमारे पूर्वज धरती पर आकर हमें इन 16 दिनों में अपना आशीर्वाद देते हैं और उनके निमित्त किया गया शुद्ध मन से तर्पण कार्य भोजन यथा सामर्थ्यनुसार किया गया कर्म को वह स्वीकार कर वर्षभर के लिए अपना स्नेह प्रदान करते हैं।
‘श्रीमदभागवत में स्पष्ट रूप से बताया गया है, कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। ‘नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों से अवगत कराने का पर्व श्राद्ध पक्ष है। मैं कौन हूं? पिता व दादा के बाद परदादा कौन, हम किसके वंशज, हमारे पूर्वज कौन? हमारे शरीर में किस वंश-पूर्वजों का रक्त प्रवाह हो रहा है। यह हम समझ नहीं पाते हैं। संसार में हिंदू धर्म ही एक ऐसा है, जो इन असाधारण सवालों का जवाब साधारण से शब्दों में श्राद्धपक्ष के रूप में हमें देता है। नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों से अवगत करवाने का पर्व ही श्राद्ध पक्ष कहलाता है।
पुराणों के अनुसार, जिसको भी पितृदोष जन्मकुंडली में होता है। उसे 16 दिनों तक तर्पण एवं श्रीमद्भागव गीता के अध्यायों का पाठ करना लाभकारी माना गया है।जिससे पितरों को मोक्ष-शांति, मुक्ति के साथ हमारे पितृदोष समाप्त होकर व कष्टों से उभारने में सहायक होते हैं। शास्त्रों में पितृऋण को भी महत्वपूर्ण ऋण माना गया है। इसमें भी सातों लोकों में स्थित सातों पितृ गणों को लिया जाता है, परंतु माता-पिता का ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है। “ऋण से मुक्ति का पर्व श्राद्ध पक्ष” कहलाता है। हिंदू धर्म के अनुसार जिस तिथि को मनुष्य की मृत्यु होती है, उस तिथि को उसका श्राद्ध माना जाता है।भूल-चूक या हमारे किसी पूर्वजों की तिथि ज्ञात नहीं है, तो उसके लिए अंतिम दिन सर्वपितृ अमावस्या का दिन है। (पितृ-विसर्जनी अमावस) इस दिन उन सब पितरों को याद कर श्रद्धा के साथ तर्पण करना चाहिए, जिनके कारण आज हम हैं। सुख-शांति, यश-कीर्ति, पितृदोष निवारण हेतु याचना कर आशीर्वाद लेना चाहिए।
श्राद्ध के दिन कर्मकांड-पूजा पाठ करने वाले सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कर दक्षिणा प्रदान करना चाहिए। जिन्हें हम पितृरूप में देखते हैं।साथ ही कौवे का महत्व भी श्राद्ध पक्ष में माना गया, जो कि अमर पक्षी के रूप में है। उसे भी नैवेद्य स्वरुप भोजन देना अनिवार्य रूप से जरूरी है। गाय तथा कुत्ते को भी भोजन कराना चाहिए। साले,भांजे, जमाई को भी भोजन कराने का महत्व है। यह कार्य पूरी शांति और श्रद्धा से करना चाहिए, क्योंकि वर्षभर में कुछ दिनों के लिए ही हमारे अपने पूर्वज हमारे पास आते हैं। इन16 दिनों में शांत और धैर्य को परिवार में अत्यधिक अपनाना चाहिए। इससे पितृगण प्रसन्न होते हैं।द्वेष-क्लेश होने पर पितृ रूठ कर कभी-कभी श्राप भी दे देते हैं। इससे परिवार के लोगों को जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। वैसे जीवनभर ही मनुष्य को शांत और धैर्य को अपनाना चाहिए। इससे जीवन में सकारात्मक सोचने और समझने की क्षमता में वृद्धि होती है।इसके लिए सबसे सरल उपाय है जीवन में अध्यात्म को ईमानदारी से आत्मसात करना। जौ, दूध, काली सफेद-तिल्ली, सफेद फूल, डाबी कुश को जल के माध्यम से प्रतिदिन 16 दिनों तक दक्षिण दिशा में “ॐपितृदेवाय नमः” के उच्चारण के साथ तर्पण करना चाहिए, जिससे हमारे पूर्वज इस तर्पण से तृप्त हो सके। अपनी नई पीढ़ी को इस कार्य से अवगत कराते हुए अपने पूर्वजों का सामूहिक तौर से परिचय करना चाहिए। यह कार्य करते हुए अपने पूर्वजों के साथ संबंध स्थापित किया जाता है। श्रद्धा से किया गया यह कार्य ही श्राद्ध कहलाता है। इसके बाद कुछ क्षण के लिए मौन रहकर हमें क्षमा याचना कर हमारे पूर्वजों का आभार मानना चाहिए। जिन्होंने हमें अपने वंश के रूप में अपनाया और स्वीकार किया। पितरों से तात्पर्य हमारे पूर्वजों से पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि।पितृगण हमारे लिए देवतुल्य होते हैं। इन्हें सदैव प्रसन्न रखना चाहिए। बड़े से बड़े कष्टों का निवारण भी पलभर में कर देता है, इनका आशीर्वाद।
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