[ad_1]
शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! भगवान कृष्ण वृन्दावन में बलराम जी के साथ रहकर अनेक लीलाएं कर रहे हैं। एक दिन उन्होंने देखा कि सभी नगरवासी भगवान इन्द्र की पूजा की तैयारी कर रहे हैं। घर में विविध प्रकार के पकवान बनाए जा रहे हैं।
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने दावानल, वेणु-गीत और चीर हरण प्रसंग की कथा सुनी।
देखिए ! वास्तव में चीर हरण प्रसंग चीर का हरण नहीं, बल्कि माया का हरण है। उत्कृष्ट प्रेम, प्रेमी और अपने प्रियतम के बीच एक पुष्प का भी पर्दा नहीं रखना चाहता है। भगवान कहते हैं, गोपियों ! माया का पर्दा हटाकर मेरे पास आओ।
बड़ा ही सुंदर संदेश। जीव, जब तक माया का त्याग नहीं करता, तब तक ब्रह्म के साथ उसका एकाकार नहीं हो सकता।
आइए ! अब कथा के अगले प्रसंग में चलें– शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित !
गोपियों ने अपने अपने वस्त्र पहन लिए किन्तु वो एक कदम भी नहीं चल पा रही थी। उनके पैर उनके घर की तरफ नहीं बढ़ रहे थे क्योंकि श्री कृष्ण ने उनके चित्त को अपने वश मे कर लिया था। वे लाज भरी चितवन से कृष्ण को निहारती रहीं। तब भगवान ने कहा- देवियों ! अब तुम अपने अपने घर को लौट जाओ। तुम्हारी साधना और पूजा सफल हुई। अगली शरद ऋतु में तुम लोग मेरे साथ विहार करोगी। वही भगवान ने एक वर्ष के बाद अगली शरद ऋतु में गोपियों के साथ रास रचाया।
चीर हरण प्रसंग को लेकर कई तरह की शंकाएँ की जाती हैं। आइए इस संबंध में थोड़ा विचार करें। देखिए सबसे पहली बात यह है… कि भगवान श्री कृष्ण हमारे और आप जैसे कोई सामान्य मनुष्य नहीं हैं। वे पूर्ण ब्रह्म हैं।
भागवत में कहा गया है —
कृष्णस्तु भगवान स्वयम
ब्रह्म की उस दिव्य लीला का अच्छी तरह से वही आस्वादन कर सकता है जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो और यह अधिकार केवल श्री राधाजी को तथा गोपियों को ही प्राप्त है। दूसरी बात यह है कि यदि लौकिक धरातल पर विचार किया जाए तो गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए जो साधना कर रहीं थीं उस साधना में एक दोष था। वे सब शास्त्र मर्यादा और सनातन परंपरा का उल्लंघन कर नग्न स्नान कर रही थीं। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि-विधान और नियमों का उलंघन करते हैं। उनके लिए यह एक संदेश है। भगवान शास्त्र-विधान का कितना आदर करते हैं, हमें इस चीर हरण कथा प्रसंग से समझना चाहिए।
भगवान ने गीता में भी कहा है——
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि मानव समाज के विभिन्न आश्रमों तथा वर्णों के लिए शास्त्रविधि दी गयी है। प्रत्येक व्यक्ति को इन विधि-विधानों का पालन करना चाहिए। यदि कोई इनका पालन न करके काम, क्रोध और लोभवश स्वेच्छा से कार्य करता है, तो उसे जीवन में कभी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, भले ही मनुष्य ये सारी बातें सिद्धान्त के रूप में जानता रहे, लेकिन यदि वह इन्हें अपने जीवन में नहीं उतार पाता, तो वह अधम माना जाता है।
`न नग्न; स्नायात नग्न स्नान शास्त्र विरुद्ध आचरण है। इससे वरुण देवता का अपमान होता है। यदि गोपियाँ नग्न स्नान करना जारी रखतीं तो उनकी साधना सफल नहीं हो पाती। अंतिम बात यह है, कि उन दिनों नग्न स्नान करने की कुप्रथा समाज में प्रचलित थी, उसको नष्ट करने के लिए भगवान ने चीर हरण किया था। महाभारत मे दु:शासन ने द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास किया था और कृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी। दु:शासन द्वारा द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास और कृष्ण द्वारा गोपियों का चीर हरण, इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। अस्तु।
गोवर्धन पूजा
शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! भगवान कृष्ण वृन्दावन में बलराम जी के साथ रहकर अनेक लीलाएं कर रहे हैं। एक दिन उन्होंने देखा कि सभी नगरवासी भगवान इन्द्र की पूजा की तैयारी कर रहे हैं। घर में विविध प्रकार के पकवान बनाए जा रहे हैं। यशोदा मैया भी बारहों व्यंजन बनाने में व्यस्त हैं। कृष्ण मैया के पास गए, बोले- मैया-मैया! क्या पका रही हो? मुझे बड़ी ज़ोर से भूख लगी है थोड़ा खाने को दो न। मैं चख कर बताऊँ पकवान कैसों बनो है। मैया ने कहा– बेटा ! जब जय-जय हो जाएगी तब खाने को मिलेगा। जाओ, थोड़ी देर और खेल लो। कन्हैया बोले- ये जय-जय कौन सी बलाय है। मैया बोली- मुझसे मत पूछ जाकर अपने बाबा से पूछ। कन्हैया मुँह लटकाए बाबा के पास आए। बाबा बाबा !
कथ्यतां मे पिता कोSयं संभ्रमो व उपागत:
किं फलं कस्य चोद्देश: केन व साध्यते मख: ॥
बाबा ! आज अपने घर में किसकी पूजा होगी ? मैया कितने ढेरों पकवान बना रही हैं और थोड़ा चखने को भी नहीं दे रही हैं। बाबा समझाने लगे, देख बेटा !
पर्जन्यो भगवान इन्द्रो मेघा: तस्यात्म मूर्तय:।
तेSभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पय:।।
कन्हैया बेटा, हम प्रति वर्ष दिवाली के दिन इन्द्र की पूजा किया करते हैं। इससे इन्द्र प्रसन्न होकर पानी बरसाते हैं, बरसात से खूब हरी-हरी घास उगेंगी गैया घास खाकर खूब मन भर दूध देंगी। और कहीं सूखा पड़ गया तो भूख से मरना पड़ेगा कि नहीं। कन्हैया बोले- अच्छा, पूजा नहीं होगी तो इन्द्र पानी नहीं बरसाएँगे। बाबा बोले हाँ। कन्हैया बोले— अच्छा, यदि कुछ ग्वाले पूजा करें और कुछ नहीं करें तो पूजा करने वाले ग्वालों के खेत में पानी बरसेगा और बाकी के खेत में नहीं? अब नन्द बाबा चक्कर मे पड़ गए। बोले— कन्हैया ! है तो तू सात वर्ष का छोटा सा छोरा पर बातें इतनी टेढ़ी करे कि मुझ बुड्ढे की खोपड़ी गरम हो जाए। अब मैं कछु जादे तर्क-वितर्क नहीं करूं, तू अपने मन की बोल तेरे मन में क्या है?
शेष अगले प्रसंग में —-
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी
[ad_2]
Source link
Leave a Reply