– मानव उत्थान सेवा समिति आश्रम में साप्ताहिक सत्संग समारोह में सतपाल महाराज की शिष्या ने कहा
देवास। मनुष्य का मन बहुत चंचल होता है, इसका एक जगह पर टिक पाना सरल नहीं होता, चंचल स्वभाव के कारण मन की शक्तियां भी बिखरी रहती है और शक्तिशाली होते हुए भी मन अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाता।
कुछ मनुष्यों की स्थिति तो यहां तक हो जाती है कि उनका मन कमजोर प्रतीत होता है और रुग्ण भी हो जाता है। जबकि यदि मन का विकास किया जाए, उसकी शक्तियों को एकत्रित करके उनका सदुपयोग किया जाए, तो यही मन अपरिमित संभावनाओं के द्वार भी खोल देता है। हालांकि मन को नियंत्रित करना सरल कार्य नहीं होता, लेकिन यदि हम मन के रंग-रूप, उसके लक्षण, चरित्र और उसके कार्य करने के तौर-तरीकों को जान लें, तो हम उसे नियंत्रण में रख सकते हैं। जिस तरह घोड़े की आदत को जाने बिना उसे साधना संभव नहीं होता, उसी तरह मन के बारे में जाने बिना उसे वश में करना संभव नहीं होता।
यह प्रेरणादाई बातें बालाजी नगर स्थित मानव उत्थान सेवा समिति आश्रम में साप्ताहिक सत्संग के दौरान सतपाल महाराज की शिष्या प्रभावती बाई जी ने कही। उन्होंने कहा हमारा मन तो अच्छा होता है और न ही बुरा। वह पानी की तरह होता है। उसमें जैसा रंग डाल दिया जाए, वैसा ही वह हो जाता है। मनुष्य इसमें अपने विचारों, इच्छाओं, कल्पनाओं, अनुभव और संकल्प-विकल्प के जितने और जैसे रंग डालता जाएगा, वह वैसा ही बनता चला जाएगा। जब हम मन के बिना हो ही नहीं सकते, तो वह अच्छा और बड़ा कैसे हो जाएगा? अतः हम उसे जैसा बनाएंगे, वह वैसा ही हो जाएगा।
यदि घड़ा सुडौल नहीं बन पाया, तो इसमें घड़े का क्या दोष? यह तो कुम्हार का दोष है कि उसने घड़े को ऐसा गढ़ा। इसी तरह मन हमारा गीली मिट्टी के लौंदे की तरह होता है। व्यक्ति उसे क्या बनना चाहता है, यह उस पर निर्भर करता है। मन व्यक्ति का बहुत अच्छा सारथी भी है, यानी वह किसी भी आज्ञा का बहुत अच्छे से पालन करने वाला भी है। व्यक्ति का मन एक दर्पण की तरह भी होता है यानी उसके सामने जैसा भी कुछ आता है, उसी का प्रतिबिंब मन दिखाता है।
इस मौके पर उपस्थित साध्वी शारदा जी ने ज्ञान-भक्ति, वैराग्य से ओतप्रोत मधुर भजन प्रस्तुत करते हुए कहा पराचेतन मन से संबंध बनाने के लिए अंतःकरण का प्रेम से सिक्त होना जरूरी है। भावनाएं सकारात्मक होती है तो वे प्रेम में बदल जाती है, जब प्रेम दिव्यता से जुड़ता है तो वह श्रद्धा बन जाता है और जब श्रद्धा से अहंकार तिरोहित हो जाता है तो वे भावनाएं भक्ति में एवं समर्पण में बदल जाती है। उस अवस्था में एक परम शून्यता व्यक्तित्व में विराजमान हो जाती है और फिर इस परम शून्यता में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता है। यह अनुभव ही समाधि है। इस अनुभव को प्राप्त करने के लिए पराचेतन मन से हमारा निरंतर संपर्क जरूरी है।
समिति के जिला प्रधान अंगूरसिंह चौहान, गोपाल कढ़वाल, रामेश्वर कुमावत, जगदीश माली, सुरेश चावंड, अशोक शर्मा, बाबूलाल अहिरवार, पुष्कर गुप्ता आदि अध्यात्म प्रेमी उपस्थित थे।