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श्रीराम भारत की संस्कृति में, जीवनशैली में, भक्ति में, आस्था में रचे बसे हैं, साहित्य, कला, संगीत, शिल्प सब श्रीराम के बीना अधूरे हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति में, शिल्प में, मंदिरों और गुफाओं में भी दिखायी देते हैं, हंपी हो या एलोरा, सब जगह रामकथा अभिव्यक्त है।
सचमुच श्रीराम न केवल भारत के लिये बल्कि दुनिया के प्रेरक है, पालनहार है। भारत के जन-जन के लिये वे एक संबल हैं, एक समाधान हैं, एक आश्वासन हैं निष्कंटक जीवन का, अंधेरों में उजालों का। भारत की संस्कृति एवं विशाल आबादी के साथ दर्जनभर देशों के लोगों में यह नाम चेतन-अचेतन अवस्था में समाया हुआ है, इस लोक की थाती श्रीराम हैं और व्याप्ति भी श्रीराम। श्रीराम अनंत हैं तो रामकथा भी अनंता हैं, श्रीराम केवल भारतवासियों या केवल हिन्दुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, बल्कि बहुत से देशों, जातियों के भी मर्यादा पुरुष हैं जो भारतीय नहीं। रामायण में जो मानवीय मूल्य दृष्टि सामने आई, वह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठ गई। वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रहकर लोक मानस का अंग बन गई। हिन्दु धर्म शास्त्रों के अनुसार त्रेतायुग में रावण के अत्याचारों को समाप्त करने तथा धर्म की पुनःर्स्थापना के लिये भगवान विष्णु ने मृत्यु लोक में श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। श्रीरामचन्द्रजी का जन्म चैत्र शुक्ल की नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र तथा कर्क लग्न में रानी कौशल्या की कोख से, राजा दशरथ के घर में हुआ था। रामनवमी का त्यौहार इस वर्ष 30 मार्च 2023 को मनाया जायेगा। इस पर्व के साथ ही माँ दुर्गा के नवरात्रों का समापन भी होता है।
श्रीराम भारत की संस्कृति में, जीवनशैली में, भक्ति में, आस्था में रचे बसे हैं, साहित्य, कला, संगीत, शिल्प सब श्रीराम के बीना अधूरे हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति में, शिल्प में, मंदिरों और गुफाओं में भी दिखायी देते हैं, हंपी हो या एलोरा, सब जगह रामकथा अभिव्यक्त है। चित्रकला की बात करें, तो राजस्थानी बूंदी, कोटा, मिथिला, मंजूषा और मराठी चित्रकला में राम-सीता सबसे अधिक उकेरे जाते हैं। मुगल या मध्यकाल में विकसित दक्कन, राजपुर और पहाड़ी शैलियों में बने भित्ति एवं तैलचित्रों में भी रामकथा प्रसंग है। कांगड़ा, कुल्लू, बसोली, माडू, बुंदेली हर संस्कृति में श्रीराम जीवन एवं उनके जीवन-कथानकों की छाप है। श्रीराम मुद्रा का प्रचलन भी कई शासन काल में रहा है। यहीं नहीं, महात्मा गांधी का प्रसिद्ध भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ में भी राम धुन ही रची गयी है। कहने का तात्पर्य यह कि जब जीवन के घट-घट में श्रीराम का वास है, तो हमारे सामाजिक जीवन और चरित्र से श्रीराम अलग कैसे हो सकते हैं? हमें उसमें भी ‘श्रीराम’ को साकार करके रामराज्य के विस्तार की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में अवश्य सोचना चाहिए, इसी दिशा में श्रीराम मन्दिर की महत्वपूर्ण भूमिका बनने जा रही है।
इस वर्ष श्रीरामनवमी का महत्व इसलिये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि श्रीराम मन्दिर वर्षों के इंतजार के बाद तय सीमा से पहले बनकर तैयार हो जायेगा और प्रभु श्रीराम अपने भव्य दरबार में विराजमान होंगे। 2024 मकरसंक्रांति तक भगवान रामलला की मंदिर के गर्भगृह में प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी। श्रीराम सुशासन एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रेरक है, इस दृष्टि से श्रीराम मन्दिर लोकतंत्र का भी पवित्र तीर्थ होगा। आज असंख्य जनमानस की व्यापक आस्थाओं के कण-कण में विद्यमान श्रीराम के मन्दिर बनकर तैयार होना, एक अनूठी एवं प्रेरक घटना है, एक कालजयी आस्था के प्रकटीकरण का अवसर है, जो भारत के लिये शक्ति, स्वाभिमान, गुरुता एवं प्रेरणा का माध्यम बनेगी। इससे हिन्दू राष्ट्र के निस्तेज होते सूर्य को पुनः तेजस्विता एवं गुरुता प्राप्त होगी।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम मन्दिर का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में हुआ था जो नये भारत के अभ्युदय की शुभ एवं गौरवमय ऐतिहासिक घटना बनी, जो युग-युगों तक इस देश को सशक्त बनाने का माध्यम बनती रहेगी। श्रीराम मन्दिर निर्माण की भूमिका तक पहुंचने के लिये असंख्य लोगों की आस्था एवं भक्ति के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी का लम्बा संघर्ष रहा है, यह मन्दिर निर्माण उनके सुदीर्घ संघर्ष की जीत है। इस जीत के बाद भी अभी और भी बहुत तरह के संघर्ष बाकी है। असली मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा तभी होगी जब हिन्दू समाज कुरीतियों-कुरूढिय़ों-विकृतियों मुक्त होगा, आडम्बर एवं प्रदर्शन मुक्त होकर समतामूलक समाज की स्थापना करेगा, श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन का ध्येय बनायेगा। भारत अपने आत्म-सम्मान एवं शक्ति को हासिल करते हुए सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक-आर्थिक स्तर पर विश्व गुरु की भूमिका का निर्वाह करेगा। हमें शांतिप्रिय होने के साथ-साथ शक्तिशाली बनकर उभरना होगा, ताकि फिर कोई आक्रांता हमें कुचले नहीं, हम पर शासन करने का दुस्साहस न कर सकें।
यह भारत जिसे आर्यावर्त भी कहा गया है, उसके ज्ञात इतिहास के श्रीराम प्रथम पुरुष एवं राष्ट्रपुरुष हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र को उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूर्व तक जोड़ा था। दीन-दुखियों और सदाचारियों की दुराचारियों एवं राक्षसों से रक्षा की थी। सबल आपराधिक एवं अन्यायी ताकतों का दमन किया। सर्वोच्च लोकनायक के रूप में उन्होंने जन-जन की आवाज को सुना और राजतंत्र एवं लोकतंत्र में जन-गण की आवाज को सर्वोच्चता प्रदान की। श्रीराम सुशासन एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रेरक है, इस दृष्टि से श्रीराम मन्दिर लोकतंत्र का भी पवित्र तीर्थ होगा। आज हम श्रीराम और श्रीराम कथा को लेकर भाषा, जाति और अमीर-गरीब के बीच विभाजित हो जाते हैं, जबकि श्रीराम और श्रीराम कथा में प्रजातांत्रिक दर्शन भी है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। वनवास यात्रा में केवट को अपना बनाना, शबरी के जूठे बेर खाना क्या लोकतांत्रिक जीवन दर्शन का उदाहरण नहीं है? सीता की खोज में हनुमान, सुग्रीव, नल-नील, जटायु से सहयोग लेना, प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधियों से सहयोग लेकर शासन-व्यवस्था चलाने का दर्शन नहीं है? आज आवश्यकता है श्रीराम और श्रीराम कथा के आलोचना से भी प्रजातांत्रिक गतिशीलता की तलाश की जाये और देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था को गतिशील बनाया जाये। प्रजातंत्र या लोकतंत्र भी जनप्रतिनिधियों के सामने वैज्ञानिक आचार संहिता का विचार रखता है। फिर श्रीराम चरित्र या श्रीराम कथा को नैतिकता के आचार संहिता में पुनर्पाठ या पुनर्परिभाषित क्यों नहीं की जा सकती है? आवश्यकता त्याग के नियंत्रित भोग से राजनीतिक संस्कृति विकसित करने की है न कि श्रीराम के नाम पर घटिया राजनीति करते हुए उनके चरित्र को धुंधलाने की।
भगवान श्रीराम अविनाशी परमात्मा हैं जो सबके सृजनहार व पालनहार हैं। दरअसल श्रीराम के लोकनायक चरित्र ने जाति, धर्म और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर जन-जन को अनुप्राणित किया। भारत में ही नहीं, दुनिया में श्रीराम अत्यंत पूज्यनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं। थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं। श्रीराम केवल भारतवासियों या केवल हिन्दुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, बल्कि बहुत से देशों, जातियों के भी मर्यादा पुरुष हैं जो भारतीय नहीं। रामायण में जो मानवीय मूल्य दृष्टि सामने आई, वह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठ गई। वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रहकर लोक मानस का अंग बन गई। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्र में नागरिक रामलीला का मंचन करते हैं तो क्या वे अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं? इस मुस्लिम देश में रामलीलाओं का मंचन भारत से कहीं बेहतर और शास्त्रीय कलात्मकता, उच्च धार्मिक आस्था के साथ किया जाता है। ऐसा इसलिये संभव हुआ है कि श्रीराम मानवीय आत्मा की विजय के प्रतीक महापुरुष हैं, जिन्होंने धर्म एवं सत्य की स्थापना करने के लिये अधर्म एवं अत्याचार को ललकारा। इस तरह वे अंधेरों में उजालों, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई के प्रतीक बने।
– ललित गर्ग
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