– अपनी अनूठी चमक से वन में स्वर्ण खेती का कराता है आभास
नेमावर (संतोष शर्मा)। जिले के खातेगांव ब्लाक के जंगलों में दुर्लभ पीला पलाश (खकरा) वृक्ष खोजा गया है। वन अंचल में पलाश के पेड़ों के उपयोग की जानकारी के संदर्भ में कार्यरत समाजिक कार्यकर्ता योगेश मालवीया व सहयोगी नौशाद खान को अध्ययन के दौरान दिखाई दिया। इन्होंने पीला पलाश वृक्ष देवास जिले के खातेगांव के खिवनी अभ्यारण से लगे जंगल में देखने का गौरव हासिल किया है।
एक पीले पुष्पों वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा’ है। ‘ब्यूटिया सुपरबा’ और ‘ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा’ नाम से इसकी कुछ अन्य जतियां भी पाई जाती हैं।
उल्लेखनीय है कि मप्र में खरगोन व खंडवा जिले में पीला पलाश के एक-दो वृक्ष है। ऐसी स्थिति में देवास जिला में भी पीला पलाश वृक्ष पाना भी गौरव से कम नहीं है।
इस संदर्भ में चर्चा अनुसार बुर्जुगों ने कहा कि पलाश वृक्ष का गोंद, पत्ता, जड़ सभी औषधीय गुणों से परिपूर्ण है।
पलाश वृक्ष अपने पत्तों के निश्चित समूह के कारण ढांक के तीन पात कहा जाता है।
‘भारतीय साहित्य’ और ‘संस्कृति’ से घना संबंध रखने वाले इस पलाश वृक्ष का मानव जीवन में बड़ा निकटतम रिश्ता है, जो प्रकृति प्रेम को प्रदर्शित करता है। साहित्य में पलाश वृक्ष के सुंदर रूप का वर्णन भी श्रृंगार रस के साथ प्रचुरता से हुआ है। आधुनिक काल में भी अनेक कृतियां जैसे- रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य संग्रह- ‘पूरब खिले पलाश’, नरेन्द्र शर्मा की ‘पलाश वन’, नचिकेता का गीत संग्रह ‘सोये पलाश दहकेंगे’, देवेन्द्र शर्मा इंद्र का दोहा संग्रह ‘आँखों खिले पलाश’ आदि टेसू या पलाश की प्रकृति को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं।
पलाश वृक्ष का चिकित्सा और स्वास्थ्य से गहरा संबंध आदिम संस्कृति से ही है।
अन्य जानकारी- आयुर्वेद में पलाश वृक्ष के पांचों अंगों- तना, जड़, फल, फूल और बीज से दवा बनाने की विधियां दी गई है।
पीला पलाश वृक्ष अब दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित करने की जरूरत है। इस दुर्लभ बीज को संरक्षित करने हेतु बीज एकत्रित कर जंगलों में या अभ्यारण में लगाया जाना चाहिए।
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