Gyan Ganga: भगवान की महारासलीला के श्रवण और भजन से क्या लाभ होता है?

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शुकदेव जी ने दृष्टांत कितना पवित्र दिया। बालक अपने प्रतिबिंबों के साथ निर्विकार होकर खेलता है। ऐसे ही परमात्मा भी अपनी जीवात्मा रूपी प्रतिबिंब गोपियों के साथ विहारी जी विहार कर रहे हैं। आइए ! इस छटा को हम भी हृदयंगम करें।

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।

भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण विहार करते हैं। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।

मित्रों !

पूर्व प्रसंग में हम सबने देखा कि भगवान कृष्ण गोपियों का गोपी गीत सुनकर द्रवित हो गए वे अपने को रोक नहीं सके और उन गोपियों के पास आकर पुन: रास रचाने लगे। आइए ! उसी प्रसंग में आगे चलते हैं—-

इत्थम भगवतो गोप्य: श्रुत्वा वाच: सुपेशला:। 

जहु: विरहजं तापं तदंगोपचिताशिष:॥

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं— हे परीक्षित ! भगवान को अपने पास आया हुआ देखकर गोपियाँ अत्यंत प्रसन्न हुईं। भगवान की प्रेमभरी सुधामई वाणी सुनकर उनका जो विरह से व्याकुल संताप था वह दूर हो गया।

तत्रारभत गोविंदो रासक्रीड़ा मनुव्रतै:।  

स्त्रीरत्नैरन्वित; प्रीतैरन्योन् बद्धबाहुभि:  ॥ 

भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्री रत्नों के साथ यमुनाजी के पावन पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमई रास क्रीड़ा प्रारम्भ की। यहाँ एक बात पर विचार करना चाहिए कि भागवताकार महर्षि व्यासजी ने गोपियों को स्त्रीरत्न की संज्ञा देकर उन्हें कितनी दिव्यता प्रदान की है।

रासोत्सव: सम्प्रवृत्तो गोपीमंडलमंडित:। 

योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयो: ॥ 

सम्पूर्ण योगों के स्वामी योगेश्वर श्री कृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गए और उनके गले में हाथ डाल दिया इस प्रकार एक गोपी और एक कृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ यही अनुभव करतीं थीं कि हमारे प्यारे श्यामसुंदर हमारे ही साथ हैं।

इस तरह हजारों गोपियों से शोभायमान भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। स्वर्ग के सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ विमान पर आरुढ़ होकर उस महारास-उत्सव के दर्शन की लालसा से वहाँ पहुँच गए। स्वर्ग की दिव्य दुंदुभियाँ अपने आप बजने लगीं। यक्ष, गंधर्व और किन्नर आसमान से पुष्पों की वर्षा करने लगे।

अब गोपियों के संग गोविंद को नाचते हुए देखकर शुकदेव बाबा भी अपने को रोक नहीं पाए और अपने शब्दों की छटा के संग वे भी नाचने लगे।

पादन्यासैर्भुजविधुतिभि: सस्मितैर्भ्रूविलासै-

र्भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटै: कुण्डलैर्गण्डलोलै: ।

स्विद्यन्मुख्य: कवररसनाग्रन्थय: कृष्णवध्वो

गायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्रे विरेजु: ॥ 

शुकदेव जी महाराज की काव्य विशेषता यह है कि जैसा प्रसंग होता है वैसी ही उनकी शब्दावली होती है। उन्होंने भगवान के दिव्य महारास का वर्णन नृत्यमयी शैली में बड़े ही सुंदर ढंग से किया है। नृत्य करते हुए प्रभु कैसे लग रहे हैं– जैसे मेघ मण्डलों में विविध बिजलियाँ चमकती हैं वैसे ही कन्हैया के श्याम-छटा के बीच गोरी गोरी गोपियाँ बिजली की तरह चमक रहीं हैं।

दूसरा दृष्टांत दिया-

जैसे कि एक नन्हा-सा बच्चा शीश महल में अपने असंख्य प्रतिबिंबों के साथ नाचता है ऐसे ही हमारे आत्माराम प्रभु अपनी ही आत्माओं के संग रमण कर रहे हैं।

एवं परिश्वङ्कराभिमर्शस्निग्घे क्षणोद्दाम विलास हासै:। 

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरिभि: यथार्भक: स्व प्रतिबिंब विभ्रम:॥ 

शुकदेव जी ने दृष्टांत कितना पवित्र दिया। बालक अपने प्रतिबिंबों के साथ निर्विकार होकर खेलता है। ऐसे ही परमात्मा भी अपनी जीवात्मा रूपी प्रतिबिंब गोपियों के साथ विहारी जी विहार कर रहे हैं। आइए ! इस छटा को हम भी हृदयंगम करें। हमारे भोलेबाबा भी इस रास मण्डल में पहुँच गए। गोपियों ने टोक दिया- बाबा यहाँ दाढ़ी-मूंछ वालों का कोई काम नहीं है, निकलो बाहर। भोलेबाबा ने कहा- अरे ! देवियों, मौका तो दो। हम भी बड़ा अच्छा नाच लेते हैं। गोपियों ने कहा— यहाँ पुरुष प्रवेश सर्वथा वर्जित है। भोलेबाबा दौड़कर गए यमुना में स्नान कर प्रेम सरोवर में डुबकी लगाई लहंगा-साड़ी पहनकर चुनरी ओढ़कर एक हाथ का घूँघट निकालकर गोपियों के झुंड में पहुँच गए। गोविंद पहचान गए। आओ आओ, मेरे गोपेश्वरनाथ ! तब से रासमंडल में वृन्दावन के बीच भोलेबाबा गोपेश्वर बनकर विराजमान हैं।

बोलिए गोपेश्वर भगवान की जय——

काम को भस्म करने वाले कामारि शिवजी जहां स्वयम ठुमका लगा रहे हों उस महारास मण्डल में भला काम का प्रवेश कैसे हो सकता है? भगवान के इस महारासलीला को जो प्रेम पूर्वक गाता है उसके सारे पाप, ताप, संताप और काम, क्रोध नष्ट हो जाते हैं। आइए हम भी अपने मन को उसमें समर्पित करें।

राधा नाचे कृष्ण नाचे, नाचे गोपी संग

मन मेरो बन गयो सखी री पावन वृन्दावन।

सूरज नाचे चंदा नाचे, नाचे तारा संग क्योंकि

मन मेरो बन गयो सखी री पावन वृन्दावन।

गंगा नाचे यमुना नाचे नाचे सरयू संग क्योंकि

मन मेरो बन गयो सखी री पावन वृन्दावन।

ब्रह्मा नाचे शंकर नाचे नाचे नंदी संग क्योंकि

मन मेरो बन गयो सखी री पावन वृन्दावन। अरे! राधा नाचे ———

शंकर जी हैं भोले-भाले जटा के बाल काले गले में नाग डाले हैं। —–

कृष्णा को भावे माखन मलाई माखन मलाई

शंकर जी हैं भांग वाले जटा के बाल काले गले नाग में डाले हैं। —–

कृष्णा बजावे सोने की वंशी सोने की वंशी

शंकर जी हैं डमरू वाले जटा के बाल काले गले में नाग डाले हैं। —–

कृष्णा हमारे पहने पीताम्बर पहने पीताम्बर

शंकर जी हैं लगोट वाले जटा के बाल काले गले में नाग डाले हैं। —–

शेष अगले प्रसंग में —-

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

– आरएन तिवारी

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