Gyan Ganga: भगवान से प्रार्थना करते हुए आखिर क्या कह रही थीं सभी गोपियां?

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गोपियाँ कहतीं हैं— हे प्रभो ! तपे हुए प्राणियों को शीतलता प्रदान करने वाली आपकी यह कथा है। ऋषि मुनियों ने मुक्त कंठ से आपकी कथामृत की प्रशंसा की है। वेद स्तुति करते हुए वेद भगवान ने कहा— जो एक बार आपके कथामृत में अवगाहन कर ले उसके सारे ताप, संताप नष्ट हो जाते हैं।

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है। आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 

मित्रो ! 

पूर्व प्रसंग में हम सबने भगवान के द्वारा गोपियों के साथ की गई रासलीला कथा का श्रवण किया। गोपियों के मन में जैसे ही अहंकार का भाव उदय हुआ, भगवान अचानक वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए। भगवान का वहाँ से जाना गोपियों के लिए असह्य हो गया। उन्हें अपने बीच न देखकर गोपियों का हृदय विरह ज्वाला में जलने लगा।

गोपियाँ भगवान के विरह में विलाप करने लगीं। गोपियों के द्वारा किए गए कृष्ण के गुणों का गान ही श्रीमद भागवत में गोपी गीत के नाम से प्रसिद्ध है। आइए ! हम सब भी दो-चार श्लोकों में गोपी गीता का मधुर गायन करें। 

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥॥

शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥

न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥

गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।

रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥

अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥

कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम ही गोपियों का जीवन है। 

गोपियाँ कहती हैं, हे गोविंद ! तुम जहाँ हो शीघ्रातिशीघ्र हमें दर्शन दे दो। 

हम स्वयम को तुम्हारे अनुकूल ढाल लेंगी। यदि तुम पर्वत बनो तो हम सभी गोपियाँ मोर बन जाएँगी, तुम चंद बनो तो हम सब चकोर बन जाएँगी, तुम दीया बनो तो हम बाती बन जाएँगी और यदि तुम तीर्थ बनोगे तो हम सबके सब यात्री बन जाएँगी। सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम के साँचे में ढल जाता है। 

तव कथा मृतम गोपियाँ कहती हैं हे प्रभो ! आपकी कथा स्वर्ग के अमृत से भी श्रेष्ठ है। जैसे आप सभी ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं वैसे ही आपकी कथा भी सर्व गुण सम्पन्न हैं। तप्त जीवनम तप्तानाम जीवनम। इस संसार में दैहिक, दैविक, भौतिक इन तापों से तपे हुए प्राणियों को नव जीवन प्रदान करने वाला है। संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं जिसको कोई टेंशन न हो। चौबीसों घंटा इंसान चिंता की चिता में जल रहा है परंतु जब कथामृत पान करता है तब भगवान की लीला कथा में खो जाता है, होश ही नहीं रहता कि कौन-सा टेंशन था। जैसे कि भयंकर गर्मी से व्याकुल गजराज जब गंगा मइया के शीतल जल में डुबकी लगाता है तब उसकी सारी गर्मी छू मंतर हो जाती है और जब गंगाजल से बाहर निकला थोड़ी दूर चला तो फिर धीरे-धीरे गर्मी सताने लगती है। ठीक उसी प्रकार कथामृत पान करते समय हमारी सारी चिंताएँ समाप्त हो जाती हैं और कथा सम्पन्न हुई घर को चले तो धीरे-धीरे फिर टेंशन होने लगी। वहाँ जाना था, यह काम करना था। उसको वह देना-लेना था। धीरे-धीरे चिंता फिर सताने लगी।

गोपियाँ कहतीं हैं— हे प्रभो ! तपे हुए प्राणियों को शीतलता प्रदान करने वाली आपकी यह कथा है। ऋषि मुनियों ने मुक्त कंठ से आपकी कथामृत की प्रशंसा की है। वेद स्तुति करते हुए वेद भगवान ने कहा— जो एक बार आपके कथामृत में अवगाहन कर ले उसके सारे ताप, संताप नष्ट हो जाते हैं और सबसे बड़ी यह विशेषता है कि स्वर्ग का अमृत पीने वाले देवताओं का पुण्य क्षीण होता रहता है और

क्षीणे पुण्ये मृत्यु लोके विषन्ति। पर आपका कथामृत कल्मषापहम

जितने भी जीव के कल्मष अर्थात पाप हैं सबको धो देता है। और पापों को केवल धोता ही नहीं बल्कि जीव को भगवान के परम पद तक पहुंचाने की क्षमता भी रखता है। भगवान की कथा संसार की कीचड़ को धो देती है। और सबसे बड़ी बात यह है कि श्रवण मंगलम जितने भी पुण्य कर्म हैं वे कालांतर में फल देते हैं। आज दान किया फल मिलेगा अगले जन्म में। परंतु कथामृत में उधार खाते की बात नहीं है। नगद नारायण तुरंत लो। भगवान की कथा सुनी और उसी क्षण सुनने में ही आनंद आ गया। कथा सुनने के बाद जीवन ही बदल जाए। और जब इस पाँच भौतिक शरीर का अंत हो तो परम पद प्राप्त हो जाए। कहने का अभिप्राय यह कि जैसे ही जीव ने कथा श्रवण आरंभ किया उसका मंगल शुरू हो गया। कथामृत तत्क्षण फल देता है उसमें उधार-बाकी का हिसाब नहीं होता। जैसे किसी ने आपको एक लाख रुपए का चेक दिया तो उस चेक को नकद करने में समय लगेगा। बैंक में जाना पड़ेगा, सभी औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ेंगी तब कहीं जाकर रुपए मिलेंगे लेकिन यदि एक लाख कैश मिल जाए, तो न कहीं आना न जाना तुरंत काम हो जाए। ‘कथा’ उसी क्षण जीवन की राह बदल देती है। 

शेष अगले प्रसंग में —-    

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

-आरएन तिवारी

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