देवास। श्री राधा गोविंद धाम गणेश मंदिर राजाराम नगर में 11 दिवसीय आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला में धामेश्वरी देवी ने बताया कि उस ईश्वर तत्व को जानने के लिए श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की आवश्यकता है। उनकी शरणागत होकर सेवापूर्वक जिज्ञासु बनकर ही परमतत्व का ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
ग्रंथों एवं लोक में भी तीन शब्द पढ़ने-सुनने में आते हैं- एक पुरुष, दूसरा महापुरुष, तीसरा परमपुरुष। जिस पुरुष या जीवात्मा ने परमपुरुष या परमात्मा को जान लिया, देख लिया, उसमें प्रविष्ट हो चुका हो, वही महापुरुष या महात्मा है। भावार्थ यह कि ईश्वर-प्राप्त जीव को ही महापुरुष कहते हैं। उन्होंने कहा दो प्रकार के महापुरुष प्राप्त होते हैं। पहला जिन्हें ईश्वर का वास्तविक ज्ञान, दर्शन आदि अनुभव हो एवं बाहर भी उसी रूप में दिखते हो। ऐसे महापुरुष को पहचानना सरल है। दूसरे महापुरुष भीतर से तो वास्तव में ही महापुरुष होते हैं किंतु बाह्य व्यवहार में सांसारिक से दिखते हैं।
ऐसे महापुरुष को पहचाना अति कठिन होता है। जो महापुरुष अनादिकाल से मायातीत ही रहे, कभी मायाधीन नहीं थे। उन्हें ईश्वर का परिकर, पार्षद आदि कहते हैं। दूसरे वे जो अनादिकाल से मायाधीन रहे हैं, किन्तु किसी गुरु की शरण में जाकर उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर अनंत काल के लिए वे भी महापुरुष हो गए हैं। वास्तव में महापुरुष उसे कहते हैं जो कुछ न कर सके, न शुभ कर्म कर सके और न अशुभ कर्म कर सके। महापुरुष मिथ्या आशीर्वाद नहीं देता एवं श्राप भी नहीं देता।
उन्होंने कहा महापुरुष को पहचानने का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि महापुरुष के दर्शन, सत्संग आदि से ईश्वर में स्वाभाविक रूप से मन लगने लगता है। दूसरा प्रत्यक्ष लाभ यह होता है कि साधक की साधना पथ की क्रियात्मक गुंथिया होती है उन्हें वह सुलझा कर बोधगम्य करा देता है। तीसरा प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वास्तविक महापुरुष की वे क्रियात्मक अवस्थाएं जो समय-समय पर बहिरंग रूप से गोचर होती है, उन्हें देखकर साधक को स्वाभाविक उत्साह एवं उत्तेजना मिलती है। प्रेमास्पद भगवान के नाम, गुण, लीला आदि के स्मरण, कीर्तन आदि से वह प्रेम बाहर छलक पड़ता है। इसे हम सात्विक भाव के रूप में देखते हैं। प्रवचन का अंत श्री राधा कृष्ण भगवान की आरती के साथ हुआ।
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