[ad_1]
प्रभु श्रीराम जी चंद्रमा के विषय से हट कर एक और विषय पर केंद्रित हो जाते हैं। प्रभु को क्या लगता है, कि दक्षिण की ओर कुछ काले घने बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं। बिजली भी चमक रही है और बड़े मीठे स्वर में बादल गरज भी रहे हैं।
भगवान श्रीराम जी के पावन हृदय की, सागर से भी गहरी गहराई को भला कौन समझ सकता है। कारण, कि जैसी परिस्थितियां श्रीराम जी के जीवन में हैं, वैसी अगर हमारे जीवन में होती, तो क्या हम श्रीराम जी की भांति ऐसे मस्त मौला हो सकते थे? आप परिस्थितियों के समीकरण तो देखें। प्रभु श्रीराम जी रावण जैसे शक्तिशाली शत्रु के द्वार पर आन बैठे हैं और ऐसे में भी वे रावण अथवा श्रीसीता जी की चर्चा न करके, चंद्रमा के भीतर के कालेपन पर चर्चायें कर रहे हैं। सोचिए, उनके हृदय में भविष्य के गर्भ में छुपे किसी भी अनिष्ट इत्यादि का किंचित भी भाव नहीं है।
खैर! प्रभु श्रीराम जी चंद्रमा के विषय से हट कर एक और विषय पर केंद्रित हो जाते हैं। प्रभु को क्या लगता है, कि दक्षिण की ओर कुछ काले घने बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं। बिजली भी चमक रही है और बड़े मीठे स्वर में बादल गरज भी रहे हैं। प्रभु ने श्रीविभीषण जी से अपनी जिज्ञासा रखी, कि वह क्या दृश्य है? तो श्रीविभीषण जी ने कहा, कि हे प्रभु, वह कोई बादल नहीं गरज रहे, और न ही कोई बिजलियों की चमकार है। यह तो रावण की रास-रंग की सभा है, जो कि लंका में सबसे ऊँची चोटी पर एक महल में सजी है और वहाँ पर बादलों की जो काली घटा दिखाई प्रतीत हो रही है, वह रावण के छत्र की छाया है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, वे इतने चमकीले हैं, कि वे बिजलियों की भाँति चमक रहे हैं। रही बात कि मधुर मीठे स्वरों की, तो वे अनुपम ताल मृदंग बजने से हो रहे हैं।
श्रीराम जी ने यह श्रवण किया, तो वे समझ गए, कि रावण लापरवाह नहीं, अपितु अहंकार वश ऐसा व्यवहार कर रहा है। पता तो उसे भी है, कि हम उसके महलों के द्वार तक आन पहुँचे हैं। ऐसे में स्वयं को मस्त दिखा कर, वह यह संदेश देना चाहता है, कि उसे हमारे यहाँ होने का कोई अंतर ही नहीं पड़ता। उसे किसी भी प्रकार की मृत्यु अथवा हमारा कोई भय नहीं है। अब रावण हमें कोई संदेश भेज ही रहा है, तो प्रतिउत्तर में हमें भी तो संदेश भेजना ही पड़ेगा। ऐसा सोचकर, प्रभु श्रीराम जी ने बाण संधान कर, उसे रावण की दिशा में चला दिया। यह देख सभी ने सोचा होगा, कि प्रभु श्रीराम जी ने रावण का अंत ही कर दिया है, लेकिन श्रीराम जी के बाण ने बड़ा अद्भुत चमत्कारिक कार्य किया। जी हाँ! प्रभु का बाण सीधे जाकर रावण के छत्र, मुकुट व मंदोदरी के कर्णफूलों को काट देता है। यह सब एक ही बाण ने इतने क्षण भर में किया, कि किसी को कुछ पता ही न चला। आँख झपकने से भी पहले, श्रीराम जी का बाण अपना कार्य सम्पन्न करके, प्रभु के तरकस में आ बिराजा-
‘छत्र मुकुट तांटक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान।।’
दिखने में यह घटना भले ही साधारण-सी प्रतीत हो, लेकिन महान संदेशों से परिपूर्ण थी। प्रथम संदेश यह, कि प्रभु श्रीराम रावण को बता देना चाहते थे, कि हे रावण, तुम्हारा वध करने के लिए, हमारा एक बाण ही पर्याप्त है। इसके लिए ऐसा नहीं, कि हमें तुम्हारे साथ, आमने-सामने युद्ध करने की आवश्यकता है। साथ में यह भी हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं, कि हमारे बाण कोई साधारण बाण नहीं हैं, अपितु साक्षात काल हैं। जैसे काल कब किसी को ले जाता है, और कोई उसे देख ही नहीं पाता, ठीक वैसे ही तुम और तुम्हारी सभा वाले भी तो, मेरे बाण को भाँप तक नहीं पाये।
शायद तुम सोच रहे होगे, कि मैं अवश्य ही तुम्हें मारना चाहता था, लेकिन मेरा निशाना चूक गया, जिसके चलते बाण तुम्हारे शीश को न चीरता हुआ, केवल तुम्हारे छत्र और मुकुट को ही चीर पाया। तो मैं तुम्हें यहाँ पूर्णतः स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, कि मैंने केवल तुम्हारे छत्र और मुकुट को ही नहीं काटा, अपितु साथ में मंदोदरी के कर्णफूल भी काटे हैं। अगर मेरे बाण को केवल अनुमान से ही छोड़ा गया होता, तो इतनी करीबी से, बाण द्वारा वे कर्णफूल न कटे होते। इसलिए तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए, कि तुम्हारी आयु का सार हमारे हाथों में है। अभी भी समय है, अगर तुम अपने पाप का पश्चाताप करो, और श्रीसीता जी को ससम्मान हमें लौटा दो, तो हम तुम्हें अभय दान देकर वापिस अपनी अयोध्या लौट जायेंगे।
लेकिन रावण भला श्रीराम जी के हृदय को कहाँ पढ़ पाता। उल्टा वह तो एक अजीब ही तर्क से श्रीराम जी को मानों निराश कर देता है। जी हाँ, रावण ने देखा, कि पूरी सभा में, सबके समक्ष उसके मुकुट गिर गए हैं और गिराने वाले का कोई अता-पता तक नहीं है। ऐसे में तो संपूर्ण सभा में मेरा अपमान हो उठा है। इसकी भरपाई के लिए तो मुझे अवश्य ही कोई युक्ति अपनानी पड़ेगी। ऐसा सोच कर रावण ने तुरंत अपना मुकुट उठाकर अपने सिर पर सजा लिया और हँसता हुआ बोला, कि अरे! तुम सब लोग यूँ आँखें फाड़-फाड़ भला मुझे क्यों ताड़ रहे हो? क्या हुआ, केवल मुकुट ही तो गिरा है न? सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, भला उसके लिए मुकुटों का गिरना अपशकुन कैसे हो सकता है?
रावण ने तो मानों अपनी भावी मृत्यु के सत्य से पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन मंदोदरी के भीतर विचारों के एक भयंकर झंझावत ने उसे झंझोड़ कर रख दिया। आखिर मंदोदरी किस भँवर में फँसी थी, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।
-सुखी भारती
[ad_2]
Leave a Reply