स्मृति विशेष: एक अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी दिनकर राव कस्तुरे प्रधानाध्यापक प्रावि टोकखुर्द, जिन्होंने संपूर्ण जीवन संघर्षमय व्यतीत कर ग्राम देवली एवं टोंककला में पदस्थापना की अवधि में क्षेत्रीय विकास हेतु निरंतर प्रयास किये।
स्व. शंकरराव कस्तुरे, कृषक टोकखुर्द के सुपुत्र दिनकरराव का जन्म 15 जुलाई 1924 को उज्जैन में हुआ। बाल्यकाल ननीहाल में व्यतीत हुआ। टोंकखुर्द एवं सोनकच्छ में प्राथमिक शिक्षा हुई तथा कक्षा 7वीं से उज्जैन में मामा के घर पर रहकर शिक्षा ग्रहण की।
उज्जैन में छात्र जीवन में दिगंबरराव तिजारे के संपर्क में आए एवं टोंकखुर्द से अध्ययनरत अन्य सहपाठियों बसंतीलाल व्यास, आनन्दीलाल व्यास एवं नंदकिशोर तिवारी के साथ महाकाल ग्राउंड पर संघ की शाखा के नियमित स्वंयसेवक रहे। यहीं पर इनके चेचेरे भाई दत्तात्रय कस्तुरे ‘‘भैय्याजी‘‘ तथा विष्णु कस्तुरेजी संघ के कार्य में पूर्णकालिक रूप से कार्य करते रहे।
सन् 1942-43 में अंग्रेजों के विरूद्ध भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने से कक्षाओं में उपस्थिति कम हुई तथा मिडिल स्कूल की परीक्षा में सम्मिलित होने की अनुमति नहीं देने का आदेश तत्कालीन अंग्रेज शिक्षा अधिकारी जनरल रेले ने जिन छात्रों ने आंदोलन में भाग लिया था उनके लिये जारी किया था।
उसी समय माधवगंज माध्यमिक विद्यालय, उज्जैन में जी डब्ल्यू. गंधे शाला निरीक्षक निरीक्षण पर आये व उक्त विद्यालय के प्रधानाध्यपक श्री भरतरी को संशोधित आदेश ग्वालियर से जारी हुआ है, से अवगत कराया तथा आंदोलनकारी छात्रों को परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये अनुमति प्रदान की गई, परंतु उस समय उनके पास परीक्षा फीस भरने हेतु पर्याप्त राशि तथा अंतिम तिथि तक जमा करना असंभव था। अतः यह राशि श्री गंधे द्वारा वहन की गई। साथ ही आंदोलन में भाग लेने से परीक्षा हेतु अभ्यास की तैयारी न होने पर भी ग्वालियर स्टेट की मिडिल बोर्ड उन्होंने सन् 1942-43 में उत्तीर्ण की।
प्रावि टोंकखुर्द के प्रधानाध्यापक रामलालजी अवस्थी की सेवानिवृति निकट थी। अतः श्री अवस्थी ने पूर्व से रिक्त पद पर अध्यापन कार्य हेतु योग्य समझा एवं उनकी नियुक्ति हेतु अनुशंसा की। टोंकखुर्द में युवा अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली।
श्री कस्तुरे का व्यक्तित्व अत्यन्त अनुशासित, परिश्रमी, मिलनसार, निर्भिक रहा है। छात्रों के साथ कक्षा एवं विद्यालय में कठोर अनुशासन रखना तथा खेल के मैदान में स्वयं छात्रों के साथ खेलकर मैत्रीपूर्ण व्यवहार उनके स्वभाव का विशेष गुण था। कबड्डी में महारत प्राप्त की थी तथा उत्कृष्ट प्रदर्शन की चर्चा में आज भी उनके शिष्य उनका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जिसके फलस्वरूप उनके शिष्य सदैव उनके मार्गदर्शन में रचनात्मक एवं जटिल कार्यो के निष्पादन में सदैव तत्पर रहते थे।
सन् 1964-65 में भैय्याजी कस्तुरे, लक्ष्मीनारायण कारपेंटर तथा उन्होंने टोंककला में योगीराज बलंग बाबा के सानिध्य में यौगिक किया एवं योग का अभ्यास कर प्रवीणता प्राप्त की। इसी प्रकार मप्र जिमनास्टिक एसोसिएशन, उज्जैन के सदस्य रहे। वे शारीरिक रूप से स्वस्थ एवं स्फूर्त थे तथा समाज को सदैव क्रीडा एवं योगाभ्यास में सम्मिलित होने हेतु प्रेरित करते थे।
नगर के निरंतर विकास एवं शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये सदैव समर्पित रहे। प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो इसी उद्देश्य से स्थानीय तथा आसपास के गांवों में जाकर बच्चों को विद्यालय में प्रवेश हेतु पालकों को प्रेरित करना तथा विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना।
नगर में माध्यमिक स्तर का विद्यालय था तथा कक्षा आठवीं उत्तीर्ण करने के बाद विद्या अध्ययन हेतु अन्य शहरों में जाना होता था, जो प्रतिभावान विद्यार्थी आर्थिक कठिनाईयों के कारण आगे की शिक्षा से वंचित रहते थे। अतः ऐसे छात्रों की शिक्षा टोंकखुर्द में ही हो ऐसा संकल्प लिया तथा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की स्थापना टोंकखुर्द में प्रारंभ करने हेतु शासन द्वारा निर्धारित अंशदान की राशि एकत्रित करने के लिये उन्होंने एक समिति का गठन किया। निकट के ग्रामीण क्षेत्रों में तथा स्थानीय स्तर पर निरंतर भ्रमण किया। अथक परिश्रम से राशि एकत्रित की तथा अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल हुए।
उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय प्रारंभ करने हेतु शासकीय भवन नहीं था, अतः स्थानीय रावला परिसर में विद्यालय संचालन हेतु ठाकुर साहब रावफतेसिंह चावड़ा सा. ठिकाना, टोंकखुर्द से मात्र चार माह के लिये स्वयं की जिम्मेदारी पर स्थान उपलब्ध करवाने हेतु उन्होंने निवेदन किया था। तत्पश्चात यह विद्यालय स्थापित होकर लगभग 25 से 30 वर्षो तक ठाकुर साहब रणबहादुरसिंह चावड़ा सा. की अनुकंपा से रावला परिसर में ही संचालित हुआ था।
शिक्षा के प्रसार एवं अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में निरंतर लगन से कार्य करने से शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारियों की दृष्टि में इनका व्यक्तित्व प्रभावशील एवं किये गये कार्य उत्कृष्ट रहे इस उच्चतर विधालय में कुशल अध्यापन कार्य में दक्ष व्याख्याताओं के स्थानान्तरण के आदेश करवाए। परिणामस्वरूप सन् 1965-66 में विद्यार्थी मोड़सिंह तोमर, हरनावदा का प्राविण्य सूची में स्थान पाना ग्राम टोकखुर्द के छोटे से विद्यालय के लिये अत्यन्त गौरव का विषय था तथा साथ ही अन्य विद्यार्थी भी अच्छे अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए।
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के स्वयं सेवक होने से शासकीय सेवा में रहते हुए भी अप्रत्यक्ष रूप से संघ से जुडे थे। सेवानिवृति से पूर्व, स्वयंसेवक रामचन्द्र पालीवाल से नगर के मध्य में स्थित उनकी रिक्त भूमि को सरस्वती शिशु मंदिर की शाखा प्रारंभ करने हेतु दान देने के लिये प्रेरित किया तथा भूमि दान करवाई।
सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना हुई तथा वर्ष 1982 से 2012 तक वे आजीवन व्यवस्थापक रहे। वर्तमान में उनके आदर्शो एवं प्रयास को उनके शिष्य इस संस्था का सफल एवं उत्कृष्ट संचालन कर रहे हैं। इस प्रकार उनका लगभग 70 वर्ष तक चार पीढ़ियों को सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान एवं आशीर्वाद प्राप्त होता रहा।
माड्साब में विद्यार्थियों में छुपी प्रतिभा की परख थी। कठिन परिस्थिति में उनकी फीस का भुगतान प्राचार्य द्वारा किया गया। यह आदर्श दृष्टिगत रखते हुए छात्रों के पालकों के असहमत होने के विपरीत उन्होंने कई विद्यार्थियों को नगर के बाहर उच्च शिक्षा प्राप्ती हेतु तन, मन, धन से कॉलेज में प्रवेश तथा होस्टल की प्रक्रिया स्वतः छात्रों के साथ जाकर पूर्ण करवाई।
समस्त विद्यार्थी के प्रति समान व्यवहार करते थे। मुख्य रूप से अधिकांश विद्यार्थी लाभान्वित हुए तथा उच्च पदों पर रहकर सेवानिवृत्त हुए । जिनमें से टेकचंदजी जैन, महेशजी जैन डॉक्टर बने, कन्हैयालाल मालवीय, संयुक्त कलेक्टर बने और कन्हैयालाल जी न्यायाधीश बने। इसके अतिरिक्त सेना, शिक्षा, राजनीति, इंजीनियरिंग, प्रशासनिक सेवाओं में अनेक शिष्यों को नियुक्ति मिली। स्थानीय स्तर पर भी अपने शिष्यों को शिक्षा विभाग तथा अन्य विभागों में योग्यतानुसार नियुक्ति हेतु अनुशंसा की। इसी कारण से समस्त नगर के महानुभाव उनका आदर एवं सम्मान कर अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करते हैं।
स्मरण रहे कि 31 जुलाई 1982 को उनकी सेवानिवृति पर उनके शिष्यों द्वारा किया गया स्वागत, सम्मान एवं हाथी पर निकाली गई भव्य शोभायात्रा टोंकखुर्द नगर के लिये अद्वितीय इतिहास बना है। शिक्षक दिवस के पर अवसर पर उनके संस्मरण को याद कर हम श्रद्धा सुमन अर्पित कर सादर नमन करते हैं।
साभार- श्री दिनकर रावजी कस्तुरे (बड़े माड़साब की आत्मकथा से)
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