शासकीय नौकरी के लिए कहीं किसी के आगे हाथ नहीं पसारे
शिक्षाकर्मी पदनाम से चिड़ थी, अपमान लगता था
(अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे)
गतांक से आगे…
मैंने शासकीय नौकरी के लिए कहीं किसी के आगे हाथ नहीं पसारे।
पत्रकारिता जगत में आने से पूर्व की कहानी कम संघर्षमय नहीं है। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कभी पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखूंगा। कारण यह था कि मेरे परिवार या परिचित किसी का भी दूर-दूर तक इस विधा से कोई संबंध नहीं था। मैंने हिंदी में स्नातकोत्तर करने के लिए जब आवेदन किया था तो वैकल्पिक विषय अनायास ही पत्रकारिता चुन लिया। तब मैं ट्रांसपोर्ट कंपनी में कार्य कर रहा था। मुझे पढ़ाई के लिए समय नहीं मिल पाता था। परीक्षा का समय चक्र जारी हुआ तब कुछ किताबें लेकर आया और पढ़ाई शुरू की। फिर परीक्षा दी। जब परिणाम आया था तो सर्वाधिक अंक पत्रकारिता में ही आए। इस पर अनायास ही मेरी रुचि बढ़ने लगी।
हालांकि इससे पूर्व जब स्नातक कर रहा था तब मैं पंडिताई के साथ-साथ स्वयं की कपड़ों की छोटी दुकान चला रहा था। साहित्य में गहरी रुचि होने के कारण हिंदी और संस्कृत की पुस्तकें पढ़ा करता था। तब योग्य होने के बावजूद शासकीय नौकरी के लिए कहीं किसी के आगे हाथ नहीं पसारे। साथ ही ग्राम में कोई दमदार राजनेता भी नहीं था। किसान बहुल ग्राम में सभी सीधे-साधे लोग रहते हैं। किसी की भी पहुंच भोपाल स्तर पर तो दूर, जिला स्तर पर भी नहीं थी। वहीं हमारा स्वाभिमान भी किसी के आगे हाथ पसारने की अनुमति नहीं देता।
हालांकि शासकीय विज्ञप्तियां निकलतीं तो नौकरी के लिए आवेदन जरूर कर देता था। कहीं से भी कोई सफलता नहीं मिली। जबकि शिक्षाकर्मी की नौकरी भी निकली थी, लेकिन उस पद का नामकरण मुझे उस नौकरी को करने की अनुमति नहीं देता था। इस बीच ट्रांसपोर्ट कंपनी के संपर्क में आया। दो साल अलग-अलग शहरों में कार्य करने के बाद इस काम में मन नहीं लगा। तब तक मैंने स्नातकोत्तर पूर्ण कर लिया था।
इसके बाद एक प्रमुख अखबार में संपादक के लिए आवेदन मंगाए तो इंदौर की ओर दौड़ लगा दी। इंदौर महानगर में आया था किसी और अखबार की विज्ञप्ति पढ़कर किंतु एक प्रतिष्ठित अखबार के सज्जन मिल गए। हाथ पकड़कर उनके अखबार में ले गए। वहां औपचारिक पूछताछ के बाद 15 दिन के परीक्षण पर रखा गया। इस दौरान जाना कि सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुंचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाओं को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है। इसके बाद पत्रकारिता में ही अपना भविष्य देखकर तत्कालीन प्रतिष्ठित और सर्वश्रेष्ठ अखबार के साथ अपना सफर शुरू कर दिया।
शिक्षाकर्मी पदनाम से चिड़ थी, अपमान लगता था।
मेरे पिताजी शासकीय शिक्षक के साथ-साथ प्रकांड विद्वान और ज्योतिषी भी थे। पूरे क्षेत्र में उन्हें गुरुजी के नाम जाना जाता था। गुरु ज्ञान और प्रकाश का प्रवाह पुंज है। अपने शिष्य के प्रति गुरुतर दायित्व निभाते हुए एक कुम्हार की भांति उसके जीवन को रचता और संवारता है। गुरु हमें शिक्षा के साथ-साथ संस्कार, संस्कृति, नैतिकता और अनुशासन की शिक्षा देते हैं। छात्रों का भविष्य संवारने में गुरु का योगदान अतुलनीय है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी गुरु आश्रम में रहकर शिक्षा अर्जित की थी। इसलिए शिक्षक को जब शिक्षाकर्मी शब्द जब तत्कालीन दिग्विजयसिंह सरकार (1993-2003) ने दिया तो मुझे ऐसे मुख्यमंत्री से चिड़ हो गई। गुरु के प्रति ये शब्द- अपमान लगता था मुझे। क्योंकि मैं भी कभी शिक्षक बनने की लालसा रखता था। शायद तत्कालीन कांग्रेस सरकार की इसी देन (शिक्षाकर्मी शब्द गढ़ना) के कारण मेरी दिशा बदल गई। लक्ष्य परिवर्तित हो गया। … और मैं पत्रकारिता की ओर मुड़ गया।
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