(अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे)
मेरे मन में आज 30 साल बाद भी टीस उठती है कि मैं वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाया जिसका सपना मैंने कक्षा आठवीं में पढ़ते समय देखा था।
यह वह दौर था, जब कोई साधन नहीं थे, पढ़ाई के लिए कंदिल-चिमनी के प्रकाश में पढ़ना पड़ता था। रातभर पढ़ने के बाद सुबह इस बात की साक्षी नाक अवश्य बनती थी। रगड़-रगड़कर धोने के बाद भी कालिमा नहीं निकल पाती थी। घासलेट के धुएं से आंखें भी कभी-कभी जलन करने लगती थी।
हालांकि इस सबके बावजूद आठवीं बोर्ड परीक्षा में जब पूरी तहसील में अव्वल आया तो सबकी उम्मीदें काफी बढ़ गईं। सबको यही लगता था कि मैं जल्दी-जल्दी कक्षाएं फर्लांग कर इंजीनियर बनने की ओर कदम बढ़ाऊं। मुझे पढ़ाने में पिताजी ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। अपनी स्वयं की आकांक्षाओं और जीवनशैली में परिवर्तन कर उन्होंने शहर में पढ़ने भेजा।
तब के शहरी स्कूल में ग्रामीण बच्चों को हेय की दृष्टि से देखा जाता था। इस कारण अच्छे अंक आने के बावजूद ग्रामीण प्रतिभाओं को सेक्शन डी में भर्ती किया गया। साथ ही इसमें शहर के वे बच्चे भी शामिल थे, जो पढ़ने में कमजोर और मस्तीखोर थे। उनका पढ़ाई से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। ऐसे बच्चों के साथ हमें भी रखा गया।
शिक्षकों का अधिकांश ध्यान सेक्सन ए और बी पर ही रहता था, जहां शहर के प्रतिभावान और शालीन घरों के बच्चे पढ़ते थे। बस यहीं से मेरा सपना टूटता गया। साथी विद्यार्थियों के साथ मेरा पढ़ाई का स्तर ठीक तो था, लेकिन कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता था।
साथ ही स्कूल के शिक्षक उस समय ट्यूशन चलाते थे। उनके घर पढ़ने जाने वाले बच्चों पर अधिक ध्यान दिया जाता था। मेरा भी मन हुआ कि मैं भी ट्यूशन पढ़ने जाऊं। कुछ दिन गया भी, लेकिन बाद में अपरिहार्य कारणों से बंद कर दिया। जैसे-जैसे 11वीं (उस समय बोर्ड थी) में आया। हर टेस्ट में अच्छे नंबर लाता था।
वार्षिक परीक्षा में स्कूल के शिक्षक दौड़-दौड़कर उन्हीं बच्चों के पास जाते थे, जो उनके यहां ट्यूशन पढ़ने जाते थे। मेरे सारे पेपर अच्छे रहे। प्रैक्टिकल में प्रदर्शन ठीक रहा। जब परिणाम आया और अंकसूची हाथ में आई तो सिर दीवार पर दे मारा। द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, प्रथम श्रेणी इसलिए नहीं बन पाई कि प्रैक्टिकल में पासिंग मार्क्स ही दिए गए थे। गणित में विशेष योग्यता मिली। ऐसा लगा जैसे मेरे साथ अन्याय हुआ।
फिर पीईटी भी दी, जिसमें आरक्षण आड़े आ गया। कटाफ से तीन अंक कम मिले, लेकिन आरक्षित वर्ग के साथियों को पालिटेक्निक कालेज मिल गए, जिनके पीईटी में माइनस नंबर आए थे। एक ऐसे मित्र का भी पालिटेक्निक में चयन हो गया, जो 11वीं में अनुत्तीर्ण हो गया। यह सुनकर ऐसा लगा कि क्या हो गया शासन को।
बहरहाल आईटीआई में प्रवेश के लिए मशक्कत की गई, लेकिन अच्छे ट्रेड के लिए वहां अंकसूची आड़े आ गई। साथ ही आरक्षण भी हावी था। बहरहाल, ड्राफ्ट्समैन सिविल में संतोष करना पड़ा। इसका उस जमाने में कोई क्रेज नहीं था। जैसे-तैसे दो साल निकाले। लोक निर्माण विभाग में चयन हो गया, लेकिन मस्टर रोल पर। बात नहीं बनी डेढ़-दो साल बाद नौकरी छोड़नी पड़ी। कालेज में एडमिशन लेकर स्नातक किया।
फिर स्नातकोत्तर, लेकिन तब तक समुद्र में बहुत सारा पानी समा चुका था। प्रबल इच्छा हुई कि शिक्षक की नौकरी की जाए, लेकिन शिक्षाकर्मी पद के लिए उस समय मन ही नहीं हुआ… और पत्रकारिता की दुनिया में आ गया। निरंतर….
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