ब्रह्माजी के मानस पुत्रों ने की थी सिद्धनाथ मंदिर में शिवलिंग की स्थापना

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पूजन से विष्णुलोक की होती है प्राप्ति, अभिषेक से मिलता है वाजपेय यज्ञ का फल

पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व को समेटे हैं नेमावर का नर्मदा के तट पर स्थित सिद्धनाथ मंदिर

नेमावर (संतोष शर्मा)।

पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व को अपने में समेटे नर्मदा किनारे स्थित सिद्धनाथ मंदिर नेमावर के सर्वाधिक प्राचीन मंदिरों में एक है। यहां वर्षभर शिवभक्तों का दर्शन के लिए तांता लगा रहता है। खास तौर पर सावन माह में भक्तों की लंबी कतार लगती है। दर्शन के लिए आने वाले भक्तों पर भगवान सिद्धनाथ की कृपा अवश्य ही बरसती है।

पौराणिक संदर्भों में देखे तो इसके निर्माण को लेकर कई मत उभरकर आते हैं। वशिष्ठ संहिता के अनुसार यहां के शिवलिंग की स्थापना ब्रह्माजी के मानसपुत्रों सनकादिक ऋषियों ने की थी। स्कंद पुराण में भी इस मंदिर का वर्णन है। इसके अतिरिक्त पद्मपुराण में बताया गया कि यह स्वयंसिद्ध शिवलिंग है। इसके पूजन-अर्चन से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। रेवाखंड के 1362 श्लोक में वर्णित है कि यहां अभिषेक करने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। द्वापर काल से भी इस मंदिर का नाता जोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कौरवों ने एक रात में किया था। यह पहले पूर्वाभिमुख था, जिसे महाबली भीम ने अपनी भुजाओं के बल से पश्चिम की ओर कर अपना अधिकार जमा लिया था। वास्तविकता क्या है यह तो इतिहास का विषय है, लेकिन मंदिर बगैर नींव का है। इसकी पुष्टि करीब 40 वर्ष पूर्व उत्खनन में हुई थी।

मौजूदा स्वरूप 11वीं सदी का-
इतिहास के आईने में झांककर देखे तो इस बात की पुष्टि होती है कि मंदिर का मौजूदा स्वरूप 11वीं सदी में परमार राजाओं द्वारा प्रदान किया गया है। शिवलिंग की प्रकटता को लेकर कोई विमत नहीं है। मंदिर के सभा एवं महामंडप का निर्माण 1220 से 1260 ईस्वी के दौरान किया गया था।

तीन खंडों में विभक्त है मंदिर-
यह मंदिर उत्तर भारत के उत्कृष्ट मंदिरों में से एक है। मंदिर तीन खंडों में विभक्त है। भूगर्भ में महाकालेश्वर खंड आता है, जिसका मार्ग भैरव गुफा से होकर जाता है, जो वर्तमान में बंद है। जिस शिवलिंग का पूजन होता है, वह भूतल में स्थित होकर सिद्धनाथ लिंग कहलाता है। मंदिर के ऊपरी भाग में तृतीय खंड ओंकार लिंग के नाम से जाना जाता है। इनके दर्शन किए जा सकते हैं, लेकिन सीढ़ी का अभाव होने से आम भक्तों के लिए कठिन होता है।

निर्माण में किया पाषाण का उपयोग-
सिद्धनाथ महादेव मंदिर पूर्णत: पाषाण से निर्मित है तथा भूतल से 80 फीट ऊंचाई तक है। इसके निर्माण में नीलाभ व पीलाभ बालुकामय पत्थरों का उपयोग किया गया है। मंदिर के आंतरिक एवं बाह्य भाग में विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों का अंकन किया गया है। ओरंगजेब के मूर्ति भंजन के उन्मादी दौर का शिकार यह मंदिर भी बना। समूची मूर्तियां यहां तक की पूजित शिवलिंग भी भंजन नहीं बच सका था। यह बात अलग है कि शिव प्रत्यक्षता का प्रमाण पाने के बाद इस बादशाह ने पाप मोक्षण के लिए द्वार पर अपना रेखाचित्र उकेर दिया था। आमतौर पर खंडित मूर्ति का पूजन निषेध माना गया है, लेकिन स्वयंसिद्धता के कारण यहां ऐसा नहीं है।

प्रात:काल भस्म आरती की परंपरा-
महंत गजानंद पुरी ने बताया कि परंपरानुसार यहां भगवान की प्रातःकाल भस्म आरती की जाती रही, जो अखंड रूप से अभी तक निभाई जा रही है। पूर्व में ताजी भस्म लगाई जाती थी, परंतु अब उसे परिवर्तित कर गाय के पवित्र गोबर व बेल फल, हवन में उपयोग में आने वाली सामग्री से भस्म तैयार कर लगाई जाती है।

शीघ्र फल की होती है प्राप्ति-
नर्मदा साधक संत रामस्वरूपजी शास्त्री ने बताया कि ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर ब्रह्मा के मानस पुत्र सनक कुमार के हाथों स्थापित है। यह मंदिर श्री यन्त्र पर पूर्ण निर्मित होने से अनुष्ठानकर्ता को शीघ्र ही फल की प्राप्ति होती। यह प्राचीन मंदिर नर्मदा के उत्तर तट पर नाभि क्षेत्र में स्थित है। इस मंदिर के गर्भगृह से ही श्मशान भूमि के दर्शन होने से यह स्वयंसिद्ध है।

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