– एनडीए जीता जरूर, पर क्षत्रप का कद घटा
(अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे)
लोकसभा चुनाव के परिणाम साफ संकेत दे रहे हैं कि मतदाता का मौन जब मुखर होता है तो चमकदार, चटकीले रंग भी फीके पड़ जाते हैं। किसी की छवि निखरती है तो किसी का कद घट जाता है।
परिणाम चाहे भाजपा गठबंधन के पक्ष में सुविधाजनक हों किंतु आशा के विपरीत अवश्य रहे। जनता के मन में ‘संस्कार’ के आगे सरकार के तेवर कम हो गए। न तो हमेशा की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सामने आ पाए, न ही भाजपा की ओर से कोई ऐसी पहल दिखाई दी, जिससे कार्यकर्ताओं के मन में उत्साह का संचार हो। इसकी वजह भी साफ दिख रही है कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो पिछली बार चार लाख से अधिक वोटों से जीते थे, वे स्वयं डेढ़ लाख वोट से ही जीत पाए हैं। जबकि मोदी के आने के बाद काशी का विकास पूरे विश्व में अपनी चमक बिखेर रहा है। वहीं देश में हिंदुत्व की राजधानी मानी जाने वाली सीट अयोध्या में भी भाजपा को हार का स्वाद चखना पड़ा है। बावजूद इसके कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा भी देशभर में काफी जोर-शोर से उठाया था।
बता दें कि जिस अयोध्या को पूरे चुनाव प्रचार में लगातार राम नगरी कहकर संबोधित किया गया, सबसे ज्यादा भाजपा ने अयोध्या नगरी में राम लला की स्थापना के नाम पर प्रचार किया, जनता को अपनी उपलब्धि बताई, उसी नगरी की फैजाबाद लोकसभा सीट पर उसे मुंह की खानी पड़ी थी। बड़ी बात यह थी कि राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम भी इसी साल जनवरी में हुआ, ऐसे में भाजपा को पूरी आशा थी कि उत्तर प्रदेश में तो सरलता से जीत जाएंगे। उत्तर प्रदेश की जनता पूर्ण आशीर्वाद देगी, लेकिन उत्तर प्रदेश ने आईना दिखा दिया।मोदी तो ठीक उत्तर प्रदेश के बुलडोजर मुख्यमंत्री के नाम से फेमस योगी आदित्यनाथ का ‘तिलस्म’ भी काम नहीं आया।
अयोध्या में राम मंदिर बने, यह हर हिंदू का स्वप्न था और इसे नि:संदेह भाजपा और भाजपा की सरकार ने पूरा किया। 500 वर्ष की प्रतीक्षा जब 22 जनवरी 2024 को पूर्ण हुई तो सभी को यह आशा थी कि अब तो भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने से कोई रोक नहीं सकता। पूर्ण बहुमत से बहुत आगे जाएगी पार्टी, लेकिन परिणाम बहुत चौंकाने वाले रहे और वह ढाई सौ का आंकड़ा भी नहीं छू सकी।
उत्तर प्रदेश की 80 सीटों के परिणाम से ही यह सबकुछ हुआ जबकि इस सबसे बड़े प्रदेश के लिहाज से कुछ सीटों पर राम मंदिर का सबसे ज्यादा प्रभाव था। अब फैजाबाद सीट तो केंद्र में थी ही, गोंडा, कैसरगंज, सुल्तानपुर, अंबेडकरनगर, बस्ती सीट पर भी राम मंदिर का काफी प्रभाव था। यह सारी सीटें फैजाबाद के आसपास ही हैं, ऐसे में माना जा रहा था भाजपा को इन सीटों पर ज्यादा चुनौती नहीं मिलेगी, लेकिन परिणाम विपरीत ही रहे। तीर्थनगरी प्रयागराज (इलाहाबाद) में भी भाजपा को निराशा ही मिली।
गत 10 वर्षों की भाजपा को देखें तो अब तक पार्टी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के ईर्द-गिर्द ही मंडराती रही और इन दोनों ने नि:संदेह अपनी मेहनत, बुद्धिमानी, कौशलता से पार्टी को उच्चतम स्तर पर पहुंचाया। जनता ने भी भरपूर सहयोग दिया, लेकिन लोकसभा चुनाव की घोषणा के पूर्व वह जनता के मन को भांपने में सफल नहीं हो पाए। बस अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते रहे। यह चर्चा भाजपा के पुराने और अब घर बैठे समर्थकों में आम रही कि अबकी बार भाजपा जो कर रही है, वह ठीक नहीं है। मसलन जब आप मानते हो कि कांग्रेस मुकाबले में ही नहीं है तो हर भाषण में कांग्रेस को क्यों कोसा जा रहा है। जब राहुल गांधी बालक है तो बार-बार उन्हें क्यों घेरा गया। राहुल की भारत जोड़ो और न्याय यात्राओं को क्यों नहीं गंभीरता से लिया गया। उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर ध्यान नहीं देना और लगातार उन्हें जोकर कहना गलत है। विपक्षी गठबंधन के निर्माण के समय से ही उसका मजाक उड़ाया गया। उसे भी गंभीरता से नहीं लिया गया।
दूसरी बात यह भी इन बुजुर्गों ने कही वह यह कि राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने साथ क्यों नहीं लिया। प्राण-प्रतिष्ठा के पूजन-अनुष्ठान में साथ क्यों नहीं बिठाया। जबकि यह सर्वविदित है कि राम मंदिर आंदोलन में आडवाणी की भूमिका क्या रही। यह कुछ अहम और कंटीले प्रश्न रहे, जिनके कारण भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले मुंह की खानी पड़ी। शाइनिंग इंडिया और फील गुड की तरह अबकी बार 400 पार नारा फेल हो गया।
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