गुरुपूर्णिमा महोत्सव में मप्र, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान सहित अन्य प्रांतों से आए कबीर साहेब के अनुयायी
देवास। शब्द का अर्थ है, शब्द बोलता है। पत्थर पथ याने रास्ता। रास्ते में हार कर जो बैठ गया, अब वह रास्ते पर चलने वाला नहीं है, क्योंकि सारे रास्ते उसमें समा गए। अब वह अविचल हो गया चलेगा नहीं। उसको मूर्ति के रूप में मान्यता इसलिए दी गई कि संसार की जितनी यात्राएं हैं, वह पत्थर के पास समाप्त हो जाती है। श्वास और प्राण चैतन्य पुरुष हैं, जो निरंतर 24 घंटे चलते रहते हैं।
यह विचार सद्गुरु मंगल नाम साहेब ने गुरु पूर्णिमा महोत्सव पर हंस चेतना विकास मंच के तत्वाधान में सदगुरु कबीर सर्वहारा प्रार्थना स्थली मंगल मार्ग टेकरी पर आयोजित दो दिवसीय गुरु पूर्णिमा महोत्सव में रविवार को ध्वजारोहण, गुरुवाणी पाठ, गुरु शिष्य संवाद में व्यक्त किए। उन्होंने कहा, कि पत्थर ने रास्ते को पूर्ण कर लिया। अब वह हिलेगा नहीं, चलेगा नहीं। प्राणों को ही महत्व दिया गया है। प्राण चलने वाला और पिंड स्थिर है। स्थिर पिंड को प्राणों से चलाया जाता है। जैसे बाल भी श्वास लेते हैं अगर श्वांस नहीं लेते तो काले से सफेद कैसे हो जाते हैं। नाखून में खून नहीं है, उसको काटने में दर्द नहीं होता। अगर कोई चाकू निकाल लें तो हमारी श्वास रुक जाती है, इसलिए जहां दया है वहां श्वास चलेगी।
उन्होंने आगे कहा, कि पत्थर की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है कि हमने इसमें प्राण प्रतिष्ठा कर दी है। अपने में जो चेतना है, वह हम इसको अपने ज्ञान, अपनी चेतना से, अपने स्वरूप में उतार लेते हैं। जैसे गुरु समाना शिष्य में, गुरु ने अपने विचार शिष्य को दिए और उसकी पहचान बताई। गुरु वहीं का वहीं बैठा है। शिष्य वहीं का वहीं बैठा है, लेकिन दोनों के बीच में जो समझ का विकास हुआ वह पहचान हो गई। गुरु के अनुभव की बात शिष्य के समझ में आ गई। मूर्तियां बैठा दो राम की, कृष्ण की चाहे कितनी भी मूर्तियां बैठा दो लेकिन जब तक उसकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती तब तक सिर्फ पत्थर ही है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति चैतन्यमय होकर उसमें आस्था की भावना समाहित हो जाती है। इस अवसर पर सद्गुरु सहायक कबीर के सैकड़ों अनुयायी साध संगत उपस्थित थे।
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