देवास। सत्संग का अर्थ आग से कम नहीं होता। आग में जब पानी और तेल तपेली कढ़ाई में रखते हैं तो तड़-तड़ करता है। सत्संग एक ऐसी आग है, जिसमें कई जन्मों के भरे हुए जो आपके अंदर अच्छे-बुरे विचार है वह ऊपर उछलते हैं। तुम्हें नहीं दिखते, हमें नहीं दिखते। लेकिन सत्संग में भाव उछलने लगते हैं, कि किसके प्रति क्या भाव हैं, क्या भाव रखते हो। हम आए कहां हैं समझना ही नहीं चाहते। रात दिन जा रहे हैं, रात दिन सत्संग में बैठे हैं। फिर भी तेल में पानी की तरह तड़-तड़ करते हैं। अरे अपने सद्गुरु साहेब की शब्द वाणी सुनने को आए हैं। जिससे कि अनेक जन्मों का कचरा लेकर हम बैठे हैं वह धूल जाए। इसलिए सत्संग में बैठे हैं। इसलिए कढ़ाई में तेल को तपाया जाता है कि उसमें मिलावट जितनी है वह निकल जाए। हम आरोग्य होना चाहते हैं, निर्मल होना चाहते हैं पर छल छिद्र छोड़ना ही नहीं चाहते। वो ऐसा है, यह वैसा है। नहीं भाई देखना है तो कपड़े चमड़े में उतरने वाली श्वास को देखो। संत इस संसार को धोते हैं। संतों की ज्ञान रूपी पूंजी से ही संसार चल रहा है।
यह विचार सद्गुरु मंगल नाम साहेब ने सदगुरु कबीर सर्वहारा प्रार्थना स्थली सेवा समिति द्वारा आयोजित चलावा आरती के दौरान सदगुरु कबीर प्रकट उत्सव अवसर पर व्यक्त किए। उन्होंने आगे कहा कि दूध में पानी मिला दो पर वह तड़-तड़ नहीं करता। उसी तरह संत दूध की तरह रहते हैं जो तड़-तड़ नहीं करते हैं। अपनी वाणी और विचारों से सदमार्ग पर ले जाते हैं। संत सबको अपना बनाकर के दूध में जिस तरह से पानी मिल जाता है। संत अपना रंग देकर संसार में अपना रंग दूध जैसा पानी को भी कर दे देता है।
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