धर्म-अध्यात्म

भगवान ने अक्रूर जी से ऐसे कौन-से प्रश्न किये थे जो आज भी पूरी तरह प्रासंगिक हैं?

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गोपियाँ कहती हैं— बहन ! विधाता को तो हमने देखा नहीं। उसको कोसने से क्या लाभ? हमारे लिए यमराज बनकर तो ये अक्रूर आया है। न ये आता न कन्हैया के जाने का प्रश्न उठता। इसका नाम अक्रूर नहीं क्रूर होना चाहिए। सारे व्रजमंडल की दो आँखें हैं कृष्ण और बलराम।

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥

श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।

भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।

मित्रों !

पूर्व प्रसंग में हम सबने भगवान और अक्रूर जी के मिलन की कथा सुनी। कंस के कहने पर अक्रूर जी श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाने के लिए आए थे। भगवान ने अक्रूर जी का खूब सेवा-सत्कार किया। सुंदर-सुंदर भोजन करवाया और दोनों विश्राम करने लगे।

आइए ! अब आगे के प्रसंग में चलते हैं—-

अब एकांत पाकर भगवान ने अक्रूर जी पूछा- चाचाजी ! मथुरा में सब कुछ ठीक है न? अक्रूरजी कुछ बोलते ही नहीं। भगवान ने प्रश्न ही अनुचित कर दिया। फिर विचार करके कहा- चाचाजी ! यदुवंशियों से कुशलता का प्रश्न पूछना ही गलत है। क्योंकि यदुवंश के कुल में कंस रूपी जो कैंसर पैदा हो गया है उसके रहते कौन कुशल हो सकता है ? आपने ठीक कहा प्रभु ! इस बीमारी का इलाज करवाने के लिए ही आया हूँ। वह रोग आपके हाथों से ही ठीक हो सकता है। अक्रूरजी ने चुप-चाप कंस का सारा षड्यंत्र समझा दिया। कृष्ण ने हँसते हुए कहा- चाचाजी ! यदि मामाजी ने मुझको याद किया है, तब तो उनसे मिलने हम जरूर जाएंगे। पर यह षड्यंत्र किसी को मत बताना नहीं तो यहाँ से निकलना असंभव हो जाएगा। आप केवल मेला घूमने की बात करना। ऐसा समझाकर भगवान नंदबाबा के पास आए। बाबा हम मथुरा का मेला घूमने जाएंगे। नन्द बाबा ने अक्रूर से कहा- देखो, मैं कन्हैया को अकेले भेंजू नहीं। यदि मेला ही घूमना है तो मैं भी साथ में चलूँगा। ठीक है, बाबा आप भी चलें। नन्द बाबा ने कहा- मेला भी घूम लूँगा और कंस को कर भी चुकता कर दूंगा। बाबा ने पूरे गोकुल में ढिंढोरा पीट दिया जो मथुरा के मेला देखन चाहे कल सुबह तैयार हो जाओ, गली-गली में यह सूचना पहुंचा दी गई। यशोदा मैया को पता चला, उनके आँसू रुक नहीं रहे हैं। सोचने लगी – “कन्हैया चला जाएगा, उसके बिना मैं कैसे जिंदा रह पाऊँगी”।

कन्हैया पूछने लगे— ”तू क्यों रो रही है, चिंता मत कर मैं जल्दी ही आ जाऊंगा।”

मैया और कन्हैया एक ही शय्या पर सोते थे। आज माँ-बेटे दोनों के एक साथ सोने की यह अंतिम रात थी। रात बहुत बीत चुकी थी। मैया लोरी सुनाकर कन्हैया को सुलाने लगी। गोपियों के कान में जब यह खबर पहुंची कि कल प्रात: प्रभु मथुरा प्रस्थान कर रहे हैं, तब सब गोपियों की नींद हराम हो गई। जिनके दर्शन में पलक गिरने का व्यवधान भी असहनीय हो जाता है, वो गोपियाँ कृष्ण के जाने पर कैसे रह पाएँगी। घर-द्वार छोड़कर सब इकट्ठी हो गईं। सखी तूने सुना? हाँ-हाँ वही कहने मैं तुम्हारे पास आ रही थी। अब क्या होगा? एक बोली- वही होगा जो विधाता ने हमारे प्रारब्ध में लिखा है। सब गोपियाँ मिलकर विधाता को गालियां देने लगीं। ये विधाता बड़ा ही क्रूर है जैसी चाहे कलम चला देता है। इसका स्वभाव बिलकुल छोटे बच्चों की तरह है। छोटे बच्चे गंगाजी की रेती में सुंदर-सुंदर घर बनाते हैं और खेलते-खेलते जब मन भर जाता है तब लात मारकर फोड़ देते हैं। उन्हे बनाने में भी मजा आता है और बिगाड़ने में भी। ये विधाता भी हमको खिलौना बनाकर ही खेल रहा है। जब चाहा खेला और जब चाहा बिगाड़ दिया। थोड़ी भी दया होती तो ऐसा क्रूर विधान क्यों बनाता।

अहो विधात: तव न क्वचित दया 

संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिन:

तांश्चाकृतार्थान् वियुनंक्ष्यपार्थक.

विकृडितं तेSर्भक चेष्टितं यथा।।

गोपियाँ कहती हैं— बहन ! विधाता को तो हमने देखा नहीं। उसको कोसने से क्या लाभ? हमारे लिए यमराज बनकर तो ये अक्रूर आया है। न ये आता न कन्हैया के जाने का प्रश्न उठता। इसका नाम अक्रूर नहीं क्रूर होना चाहिए। सारे व्रजमंडल की दो आँखें हैं कृष्ण और बलराम। दोनों को निकाल कर ले जाएगा। इससे बड़ा क्रूर कर्म और क्या हो सकता है?

एक गोपी ने कहा- मैं तो जाने नहीं दूँगी। रथ पकड़ लूँगी। रथ के सामने लेट जाऊँगी जैसे भी हो गोविंद को जाने से रोकूङ्गी। एक बोली, बहन ! ऐसा करने से हमारी बदनामी होगी दुनिया वाले क्या कहेंगे? कैसी पागल है। लोक-लाज का क्या होगा? दूसरी बोली- बहन ! जब अपने प्राण प्यारे ही जा रहे हैं तो लोक-लाज की क्या चिंता वो भी चली जाए। उसको संभाल के क्या करेंगे?

दिल लड़ी दीवार से तो परी किस काम की  

नजर लड़ी श्याम से तो दुनिया किस काम की॥ 

लोक-लाज सब छोड़ी रे, तोसे नैना मिलाके।  

नैना मिलाके श्याम नैना मिलाके बात गज़ब कर दीन्ही हे श्याम ————–

छाप तिलक सब छोड़ी रे तोसे नैना मिलाके।  

बलि बलि जाऊँ मैं तोहे रंगरेजवा, तोहे रंगरेजवा 

अपने ही रंग रंग दीन्ही हे श्याम नैना मिलाके 

छाप-तिलक सब छोड़ी रे तोसे नैना मिलाके।  

गोपियों ने कहा- जिनको कलंक लगाना है लगाते रहें मैं जीते जी नहीं जाने दूँगी। 

एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशम व्रजस्त्रय: कृष्ण विषक्त मानसा:  ।

विसृज्य लज्जाम रूरुदु: स्म सुस्वरं गोविंद दामोदर माधवेति ॥

शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ! प्रभु के विविध गुणों का गान करती हुईं गोपांगनाएँ पूरी रात जागती रहीं।

शेष अगले प्रसंग में —-

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

-आरएन तिवारी

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