देवास। बसंत ऋतु में नवनीत की प्राप्ति होती है। पतझड़ के बाद वृक्षों में नए पत्ते आते हैं। उसी तरह जीवन को भी समझना चाहिए कि आखरी में शिशु रूप धारण हो जाता है। बसंत प्रकृति का एक नया नित्य स्वरूप है। प्रकृति साल में एक बार नवनीत रूप में नव श्रंगारित होती है।
जैसे गेहूं में बाली आ जाती है, दाना आ जाता है, दूध से दाना बनता है। इसी प्रकार पेड़ नया वस्त्र धारण करते हैं। ऐसा ही मनुष्य को याद दिलाया जाता है, कि हम नित नई सांस लेते हैं। इससे यह ध्यान दिलाया जाता है कि आप सत्य हो श्वांस रूप हो विदेही हो। विदेही रूप को जीव धारण करता है। जीव भी विदेही और श्वांस भी विदेही। दोनों मिलते हैं, तब संदेह खत्म होता है। 84 लाख योनि का श्रृंगार चेतना, चेतना का स्वरूप तैयार होता है। उसी प्रकार मनुष्य में भी नवनीतता आती है। मनुष्य बिना धरती के पैदा होता है। अपनी मां के नाभि कमल से। एक पौधा उगता है अंकुरित होता है वह जमीन पर उगाया जाता है। लेकिन मानव मां के नाभि कमल से ही जन्म लेता है। यह विचार सद्गुरु मंगल नाम साहेब ने प्रताप नगर कबीर प्रार्थना स्थली पर 26 जनवरी तक आयोजित हो रहे बसंत महोत्सव के दौरान गुरुवाणी पाठ, तत्व बोध चर्चा, गुरु शिष्य संवाद में सातवें दिन शुक्रवार को प्रकट किए। 26 जनवरी तक प्रतिदिन गुरुवाणी पाठ तत्व बोध चर्चा के बाद संध्या आरती की जाएगी।
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