अक्षय तृतीया पर ग्रामीण क्षेत्रों में मटके खरीदने की निभाई परंपरा

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बगैर बिजली के फ्रिज के समान ठंडा पानी करने वाले नए मटकाें का हुआ पूजन

बेहरी (हीरालाल गोस्वामी)। पूरे देश में अक्षय तृतीया के रूप में भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा है। भारतीय संस्कृति में अक्षय तृतीया का बहुत महत्व है। मालवा की परंपरा अनुसार अधिकतर परिवारों में पीने के पानी के लिए नए मटके की खरीदी की गई। मटके की खरीदी के बाद उस मटके को जिस स्थान पर रखा गया, उस स्थान पर चावल सहित अन्य अनाज के साथ दीपक लगाकर पूजा भी की। कुछ परिवारों में गुड़ का भोग लगाकर प्रसाद वितरण किया गया।

आज भी आदिवासी बाहुल्य एवं ग्रामीण क्षेत्र में गर्मी के दिनों में मटके का ही उपयोग होता है। 1980 के दशक तक कुम्भार परिवार निश्चित ग्रामीण क्षेत्र में जाकर खच्चरों की सहायता से मटके बेचने का काम किया करते थे। ग्रामीण परिवार के लोग किसी भी तिथि पर मटका खरीद लेते थे, लेकिन उसका पूजन अखा तीज पर ही कर उपयोग शुरू करते थे। यह परंपरा आज भी क्षेत्र में निभाई जाती है।

प्रजापति समाज के जगदीश प्रजापत ने बताया, कि उनके पिताजी, दादाजी के साथ उन्होंने इस दृश्य को देखा है। विशेषकर आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार में वर्ष में एक बार बड़ा मटका और दो छोटी मटकी देने का रिवाज रहा है, बदले में ये परिवार अनाज देते थे। हालांकि अब युग बदल गया है। लोग घर से ही मटके बेचते हैं और घर आकर ही खरीदते हैं। अक्षय तृतीया पर कई परिवार नए मटके लेकर गए। कुछ स्थानों पर नए मटके रखकर प्याऊ भी खोली गई।

लाल मटके अधिक प्रचलन में थे-

प्रजापति समाज के संतोष प्रजापत ने बताया, कि पहले सुंदर कलाकृति वाले लाल मटकों का प्रचलन बहुत अधिक था। मालवा क्षेत्र में गर्मी के दिनों में बनाए गए और पकाए गए मटकों की मांग बहुत रहती है। जो मटका ज्यादा झिरपता है, उतना ही उसमें ठंडा पानी रहता है। उच्च कोटि की मिट्टी और घोड़े की लीद के मिश्रण के बाद इसे चाक पर रखकर आकार दिया जाता है। निश्चित समय के बाद घास की भट्टी लगाकर इसे पकाया जाता है तथा फिर गेरू और खड़ी से सुंदर आकृति बनाई जाती है, लेकिन आज केमिकल युक्त काले मटके आ गए हैं जो सेहत के लिए नुकसानदायक है।

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