धर्म-अध्यात्म

Gyan Ganga: श्रीराम ने दर्शाया- विकट घड़ी में कैसे लोगों का संग अनिवार्य होना चाहिए

[ad_1]

श्रीराम जी भी सुबेल पर्वत की चोटी पर जा खड़े हुए। रावण भी पर्वत की चोटी पर है, और श्रीराम जी भी पर्वत की चोटी पर हैं। मानों अपनी इस लीला से प्रभु श्रीराम जी संसार को बहुत सुंदर संदेश देना चाहते हैं। संदेश यह, कि प्रत्येक जीव को अपने जीवन काल में चोटी पर पहुँचने का अवसर मिलता है।

रोम की एक कहावत है, कि ‘रोम जब जल रहा था, तो नीरो बाँसुरी बजा रहा था।’ यह कहावत तब अस्तित्व में आई, जब रोम पर शत्रु सेना के आक्रमण होने के बाद भी, वहाँ का राजा अपने महलों में विषय राग-रंग में मदमस्त था। ठीक यही स्थिति रावण की भी है। उसे इतना तो ज्ञान है ही, कि उसके संहारक श्रीराम जी उसके द्वार पर आन बैठे हैं। ऐसे में युद्ध की रणनीतियां तैयार करने की बजाय, उसे अपने रंग-महल में रंगरलियाँ मनाते हुए कहाँ उचित ठहराया जा सकता है? लेकिन रावण तो रावण है। वह भला दिशावान कैसे हो सकता था? उसे तो उल्टा जो चलना था।

इधर श्रीराम जी भी सुबेल पर्वत की चोटी पर जा खड़े हुए। रावण भी पर्वत की चोटी पर है, और श्रीराम जी भी पर्वत की चोटी पर हैं। मानों अपनी इस लीला से प्रभु श्रीराम जी संसार को बहुत सुंदर संदेश देना चाहते हैं। संदेश यह, कि प्रत्येक जीव को अपने जीवन काल में चोटी पर पहुँचने का अवसर मिलता है। लेकिन उस शिखर पर पहुँचने के पश्चात व्यक्ति कार्य क्या करता है, यही पक्ष उसका भविष्य निर्धारित करता है। रावण चोटी पर पहुँचता है, तो ऐसे में वह विषय भोगों में अपने मूल्यवान समय को व्यर्थ करता है। जबकि श्रीराम जी जैसा कोई तपस्वी जब चोटी पर पहुँचता है, तो वह भक्ति व वैराग्य से परिपूर्ण प्रसंगों में जीवन का सार ढूँढ़ता है। जी हाँ, रावण जहाँ नतर्कियों के नाच गानों व मदिरा के सागर में डूबा हुआ है, वहीं श्रीराम जी जिन तपस्वियों व वैरागियों से घिरे हैं, वे इस धरा की एक से एक अमूल्य धरोहरें हैं। जैसे श्रीराम जी का आसन तैयार करने वाले हैं, श्रीलक्षमण जी। जिन्होंने वनों की फूल-पत्तियों को बिछाकर श्रीराम जी के शयन करने के लिए बिछौना तैयार किया है। श्रीराम जी भी वहाँ पर शयन करने लेट गये। कारण कि श्रीलक्षमण जी तो काल के अवतार होने के साथ-साथ, परम वैराग्य की मूर्ति भी हैं। और प्रभु की मुख्य सुरक्षा का कार्यभार भी, मानों वही संभाल रहे हैं। श्रीलक्षमण जी, प्रभु श्रीराम जी के बिल्कुल पीछे होकर वीर आसन में खड़े हैं। सोचिए, जिनकी रक्षा हेतु ही साक्षात काल के अवतार खड़े हों, उन्हें भला कौन पराजित कर सकता है। बाहर से मानों प्रभु ने श्रीलक्षमण जी के होते हुए अपनी रक्षा को परिपक्व-सा बना लिया हो। लेकिन क्या साधक का केवल बाहर से रक्षा करवा लेना पर्याप्त है? कारण कि, साधक के शत्रु केवल बाहर ही नहीं, भीतर भी होते हैं। वे पाँच शत्रु होते हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहँकार। इन पँच विकारों से ग्रस्त होने के कारण ही तो रावण ऐसे निर्णायक समय में भी विषय भोग में लगा हुआ है। ऐसे में अगर उसकी रक्षा में भी, श्रीलक्षमण जी जैसे वैराग्य के धनी होते, तो क्या रावण इस विकट घड़ी में भी ऐसे अज्ञानजनित व्यवहार करता?

इसके पश्चात श्रीराम जी ने अपना सीस सुग्रीव की गोद में टेक रखा है। वह महाबली सुग्रीव, जिसकी बाहों में हजारों हाथियों का बल है। प्रभु श्रीराम जी के साथ कौन-कौन हैं, व किस सेवा में कार्यरत हैं, इसका बड़ा सुंदर वर्णन श्रीराम चरितमानस में है-

‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा।

बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।।

दुहुँ कर कमल सुधारत बाना।

कह लंकेस मंत्र लगि काना।।

बड़भागी अंगद हनुमाना।

चरन कमल चापत बिधि नाना।।

प्रभु पाछें लछिमन बीरासन।

कटि निषंग कर बान सरासन।।’

अर्थात प्रभु श्रीराम जी ने अपना सीस वानरराज सुग्रीव की गोद में रखा हुआ है। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकश रखा है। ऐसे में भी वे अपने दोनों कर कमलों से बाण सुधार रहे हैं। बिल्कुल पास में ही श्रीविभीषण जी भी हैं। जो कि प्रभु के साथ बिल्कुल कोनों से लगकर कोई सलाह कर रहे हैं।

परम भाग्यशाली अंगद और श्रीहनुमान जी अनेकों प्रकार से, प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों को दबा रहे हैं। श्रीलक्षमण जी कमर में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं। प्रभु के साथ उपस्थित इन समस्त महारथियों की पूरे धरा पटल पर धाक है। अंगद एवं श्रीहनुमान जी प्रभु के चरण कमलों को जीवन का आधार बना कर सेवा कर रहे हैं। जिसका परिणाम यह है, कि उनके भक्ति पथ पर पाँव अडिग जमे हुए हैं। श्रीविभीषण जी को भले ही संसार अज्ञानता वश सम्मान न दे, लेकिन श्रीराम जी सबसे अधिक उन्हें ही अपने कानों की निकट रख कर, उनकी बात को सुन रहे हैं।

भगवान श्रीराम जी ने यह तो दर्शा दिया, कि विकट घड़ी में कैसे लोगों का संग अनिवार्य होना चाहिए। लेकिन इसी प्रसंग में श्रीराम जी, चंद्रमा को एक टकाटक निहारते हुए, सबसे एक प्रश्न करते हैं। क्या था वह प्रश्न, व उसके आध्यात्मिक जीवन के लिए क्या संदेश व मायने थे, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

-सुखी भारती

[ad_2]

Source link

Advertisement

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button