“सुदर्शन” जैसा दिव्य अस्त्र होने के बाद भी जिसके हाथ में हमेशा “मुरली” है तो वह “कृष्ण” है।
द्वारिका का परम वैभव होने के बाद भी अगर सुदामा सा मित्र है तो वह “कृष्ण” है।
“मृत्यु” के फन पर भी यदि नृत्य है तो वह “कृष्ण” है।
सर्वशक्तिमान होने के बाद भी यदि वह सारथी है तो वह”कृष्ण” है।
आज से ५२५० वर्ष पूर्व भाद्र मास के कृष्ण पक्ष के अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि को मथुरा में अवतार लेकर इस धरा को पवित्र करने वाले लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण का जन्म जन्माष्टमी पर्व “हर्षोल्लास के साथ पूरे विश्व में मनाया जाता है।
भगवान श्री कृष्ण ने कर्म को प्रधान माना और संसार के व्यक्तियों को यह संदेश दिया कि वह सत्कर्म करें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्म का फल मिलता है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसको वैसा फल भोगना पड़ता है। इसलिए ईश्वर के चरणों में अपना ध्यान करते हुए अपने कर्म करना चाहिए ताकि उनका फल हमें अच्छा प्राप्त हो सके।
भगवान श्रीकृष्ण कौन हैं ?
श्रीमद् भागवत पुराण में कहा गया है – ” कृष्णस्तु भगवानस्वयम्। ”
सभी अवतारों में जो भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य हुए, वे सब-के-सब एक ही अवतार श्री कृष्णावतार में परिपूर्ण हुए, इसलिए हम भगवान श्रीकृष्ण को पूर्णावतार मानते हैं।
जल में डूबते हुए अनन्यगति पुत्र को देखकर जिस प्रकार पिता प्रेम-विह्वल होकर स्वयं पानी में कूद पड़ता है, ठीक उसी प्रकार इस संसाररूपी कारागार के लोगों को मुक्त करने के लिए भगवान श्री कृष्ण कारागार के बंधन को स्वीकार करते हैं तथा स्वयं मुक्त होकर बाकी लोगों को मुक्ति प्रदान करते हैं।
राजसूय यज्ञ के प्रकरण में भगवान श्रीकृष्ण ने सभी लोगों को अनेक प्रकार के कार्य बताकर अपने लिए तो ” कृष्ण: पादावनेजने ” अर्थात् अभ्यागत-अतिथियों के चरण धोने का ही कार्य लिया। विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान के तीन नाम कहे गये हैं – अमानी मानदो मान्य: अर्थात् जो स्वयं अहंकाररहित होकर दूसरों को मान देता है, वह सर्वमान्य हो जाता है। इन तीन नामों को सफल कर श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सेवा धर्म का उत्तम आदर्श प्रस्तुत किया।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में जो संदेश दिया वह हर युग में प्रत्येक मानव के लिए अनुकरनीय है। विश्व में आज भी कहीं भी आध्यात्मिक चर्चा होती है, वह तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती, जब तक उसमें भगवत् गीता का उल्लेख न हो।
भगवत् गीता में भगवान ने सारी दुनिया के सभी प्रकार के लोगों के लिए , जो जिस भाव-तल पर खड़ा है, वहीं से मोक्ष तक पहुंचने का कोई-न-कोई मार्ग बता दिया है।
भगवत् गीता में भगवान ने कहा है –
” साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते। ”
अर्थात् सज्जनों में तथा पापियों में भी जो समान भाव वाला है, वह विशिष्ट है।
अपने इन उपदेशों का आदर्श अपने आचरण से विश्व को दिखाते हुए शत्रुओं के साथ भी राग-द्वेषरहित और निष्पक्ष रहकर ही व्यवहार किया था।
महाभारत युद्ध के प्रारंभ में श्री कृष्ण अपने प्रिय सखा व भक्त अर्जुन से युद्ध करने वाले उसके शत्रु दुर्योधन को भी समान भाव से सहायता करने को तैयार हुए थे। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो अपने प्रेमी मित्र के शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में सहायता प्रदान करे ?
भारत का सम्राट जरासंध और उसका मित्र कालयवन अपने अतुल सैन्यबल से मथुरा का घेरा दिए पड़े थे, उस परिस्थिति में अपने सभी बंधु-बांधवों को साथ लेकर सुदूर काठियावाड़ के द्वारका स्थान में ले जाकर बसा देना और समुद्र के मध्य एक आदर्श नगर की प्रतिष्ठा कर देना वास्तव में श्रीकृष्ण के व्यावहारिक ज्ञान की कुशलता है।
सर्व सामर्थ्यवान होते हुए भी भगवान श्री कृष्ण ने किसी भी राज्य को हड़पा नहीं था। मथुरा नरेश कंस के मारे जाने पर सभी नगरवासियों ने श्रीकृष्ण को मथुरा नरेश बनने का आग्रह किया था, जिसे श्रीकृष्ण ने आग्रहपूर्वक अस्वीकार कर दिया था। इसी प्रकार जरासंध के मारे जाने के पश्चात् जरासंध के पुत्र का ही राज्याभिषेक हुआ था। राज्य हड़पने की नीति श्रीकृष्ण नीति नहीं थी। इसी कृष्ण नीति का हमारा देश आज भी अवलंबन करता है।
लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण के चरणों में कोटि-कोटि नमन।
पावन श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। आप सभी का जीवन मंगलमय हो एवं श्री कृष्ण की कृपा हमेशा हम सब पर बनी रहे।
महेश सोनी (राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षक) प्रधान अध्यापक शासकीय माध्यमिक विद्यालय महाकाल कॉलोनी एवं स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर नगर निगम, देवास
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